NK's Post

Resentment against hike in bus fare mounting in Bhopal

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NK SINGH Though a Govt. directive has frustrated the earlier efforts of the MPSRTC to increase the city bus fares by as much as 300 per cent, the public resent even the 25 per cent hike. It is "totally unjust, uncalled for and arbitrary", this is the consensus that has emerged from an opinion conducted by "Commoner" among a cross-section of politicians, public men, trade union leaders, and last but not least, the common bus travelling public. However, a section of the people held, that an average passenger would not grudge a slight pinche in his pocket provided the MPSRTC toned up its services. But far from being satisfactory, the MPSRTC-run city bus service in the capital is an endless tale of woe. Hours of long waiting, over-crowding people clinging to window panes frequent breakdowns, age-old fleet of buses, unimaginative routes and the attitude of passengers one can be patient only when he is sure to get into the next bus are some of the ills plaguing the city b...

स्मृति के पुल : गंगा बहती हो क्यों . . . Part 4

Gangetic dolphins near Bhagalpur, Credit - Logical Bihar

Ganga and her people

NK SINGH 

Published in Amar Ujala 13 Feb 2022

यात्रियों से खचाखच भरे और दिन-रात एक किनारे से दूसरे किनारे फेरी लगाने वाले ये जहाज, पुलों के बनने की वजह से एक के बाद एक बंद होते गए। पहले मोकामा, फिर पटना और उसके बाद भागलपुर में स्टीमर सर्विस बंद हुई। 

स्कूल के दिनों में मैं भागलपुर से महज १५ किलोमीटर की दूरी पर, गंगा के दूसरे किनारे पर, नौगछिया में रहता था। दूरी महज 15 किलोमीटर की हो, पर नौगछिया से कभी भागलपुर जाना हो, तो दिन भर लग जाता था। 

नौगछिया से थाना बिहपुर की गाड़ी पकड़ो. फिर घाट लाइन की ट्रेन पकड़ कर बरारी घाट जाओ. वहां से भग्गू सिंह का जहाज पकड़ कर महादेव घाट. फिर टमटम-बस पकड़ कर भागलपुर. 

गर्मियों में जब गंगा सिकुड़ जाती थी तो जहाज पकड़ने के लिए कई दफा बालू पर एक-एक कोस चलना पड़ता था. जहाज पर चढ़ कर जहाज पर चढ़कर सोंस (डॉल्फिन) देखने का रोमांच  काफूर ! नौगछिया में 1999 में पुल बन जाने के बाद अब 20 मिनट में भागलपुर पहुँच जाते हैं। 

महेन्द्रू घाट से पहलेजा जाने वाले एक स्टीमर का नाम सरयू था. पर लोगों को उनके नाम शायद ही याद रहते थे. स्टीमर की सवारी करने वाले उन जहाजों को मालिक के नाम से जानते थे. 

यात्रा करने वाले बच्चों को भी जानकारी रहती थी कि वे बच्चा बाबू के जहाज पर चढ़ रहे हैं या भग्गू सिंह के जहाज पर! बिहार की जहाजी दुनिया में ये दोनों बड़े नाम थे. मित्र सुरेन्द्र किशोर बताते हैं कि तब सुदूर असम तक बच्चा बाबू के जहाज़ चला करते थे। 

मुंगेर में भग्गू सिंह के जहाज चलते थे. वहां का गंगा घाट अपने प्राकृतिक सोंदर्य के लिए जाना जाता है. जैसे ही स्टीमर मुंगेर पहुँचता था, भव्य किले के नीचे बना घाट अपने अद्भुत सौन्दर्य से सारी थकान हर लेता था. 

सन २०१६ में गंगा पर पुल बनने के तक मुंगेर के लोगों को भग्गू सिंह के जहाज का ही सहारा था. मेरे चाचा भी उस जहाज के नियमित यात्रिओं में से एक थे. अपनी जमीन बचाने की जुगत में मुंगेर की जिला अदालत में उनका कोई न कोई ‘टाइटल सूट’ चलता रहता था. (गाँव की हमारी जमीन आज बची है तो उन्ही की कृपा से.) 

गाँव से मुंगेर की उनकी यात्रा हर दफा एक एडवेंचर हुआ करती थी. मुंगेर घाट से सुबह का स्टीमर पकड़ने वे देर रात को ही घर से निकल जाया करते थे। बैलगाड़ी से गाँव के स्टेशन, फिर एक ट्रेन से खगड़िया, दूसरी से साहेबपुर कमाल और तीसरी से मुंगेर घाट। उसके बाद स्टीमर और अंत में टमटम. अब खगड़िया से मुंगेर जाने में ४० मिनट लगते हैं.

Opium fleet in Ganga (1850) by WS Sherwill, The Graphic, London, 24 June 1882, Credit - British Library 

ओ री उदास गण्डकी 

गंगा की गहराई जहाजों के लिए उपयुक्त है. बाकी नदियों में माल ढोने वाले बजरे चलते थे या पाल वाले बड़े नाव. ये जलपोत न केवल यातायात के साधन थे, जीवन शैली के भी प्रतीक थे. 

हमार गाँव गंडक के किनारे है। वही गण्डकी जिसके बारे में दिनकर लिखते हैं: 

वैशाली के भग्नावेष से

पूछ लिच्छवी-शान कहाँ?

ओ री उदास गण्डकी! बता

विद्यापति कवि के गान कहाँ?

तू तरुण देश से पूछ अरे,

गूंजा कैसा यह ध्वंस-राग?

मेरे नगपति! मेरे विशाल! 

पर आप रेणु या बाबा नागार्जुन  से पूछते तो वे आपको बताते — जब तक भक्ति रस और शृंगार रस रहेगा, बिदापद रहेगा और बिदापद नाच रहेगा। 

रेणु लिखते हैं: “खेतिहर मजदूरों और गाड़ीवानों के कवि विद्यापति! क्योंकि, पूर्णिया-सहरसा के इलाके में आज भी विद्यापति की पदावली गा-गाकर – भाव दिखाकर नाचने वालों की मंडली पाई जाती है। इन मंडलियों के नायक – भैंसवार, चरवाहे और गाड़ी हाँकनेवाले ही होते हैं, प्रायः।" 

A petromax

पंचलाइट

हमारे गाँव के पास अक्सर लंगर डालने वाले एक अघोड़ी बाबा नाव पर ही रहते थे. गंडक में तैरती पाल वाली बड़ी नाव पर उनका चलता फिरता घर था, हाउसबोट. सिर से पाँव तक काले कपड़े में ढके अघोरी बाबा हमारे गाँव जब भी आते, उनकी नाव सतियारा घाट पर लगती थी. उस घाट पर हमारे कुल की एक महिला कभी सती हुई थी.   

श्मशान के पास लगा उनका हाउसबोट रात को रोशनी से जगमग रहता था. उन्होंने नाव पर जनरेटर लगवा रखा था. गाँव में तब तब बिजली नहीं आई थी, जेनरेटर कम ही होते थे। शादी ब्याह या भोज भात में पेट्रोमेक्स से रोशनी की जाती थी। 

यह पेट्रोमेक्स भी उस समय तक बड़ी चीज़ होती थी। पेट्रोमेक्स के महात्यम पर तो रेणु ने एक बड़ी ख़ूबसूरत कहानी ही लिख डाली है – पंचलाइट. टोले के लोग चंदा कर एक पेट्रोमेक्स लाते हैं. फिर सांझ को पूजा का आयोजन. आगे का किस्सा रेणु के ही मुंह से सुनिए: 

“रुदल शाह बनिए की दुकान से तीन बोतले किरासन तेल आया और सवाल पैदा हुआ, पंचलैट को जलाएगा कौन! 

“यह बात पहले किसी के दिमाग में नहीं आई थी. पंचलैट खरीदने के पहले किसी ने न सोचा. खरीदने के बाद भी नहीं. अब, पूजा की सामग्री चौक पर सजी है, किर्तनिया लोग खोल-ढोल-करताल खोलकर बैठे हैं और पंचलैट पड़ा हुआ है. गांववालों ने आज तक कोई ऐसी चीज नहीं खरीदी, जिसमें जलाने-बुझाने का झंझट हो. कहावत है न, भाई रे, गाय लूँ? तो दुहे कौन? ... लो मजा! अब इस कल-कब्जेवाली चीज को कौन बाले!” 

खप्पर में जल पीने वाले अधोर बाबा को न केवल पंचलैट बालना आता था, वे जनरेटर भी स्टार्ट कर सकते थे. गाँव वाले इस बात पर एकमत थे कि जनरेटर और सर्चलाइट का उपयोग वे धारा में बहकर आने वाली अज्ञात लाशों को नदी से निकालने के लिए करते थे ताकि वे अपनी अघोर उपासनाएं कर सकें।

Migratory workers trekking back home after lockdown imposed by Government during Corona epidemic

बिदेसिया 

जब सैकड़ों मीलों तक कोई पुल नहीं था, तो गंगा, गंडक, कोशी, कमला के कछार में पल रही घनी आबादी का संबल यही स्टीमर हुआ करते थे. ये नौकाएं आज भी हमारी सामूहिक स्मृति में पुल का काम कर रहे हैं. 

नदी घाटी के लोग इन विलुप्त होते बेडों में आज भी उस जीवन को तलाश रहे हैं जो उन्हें कभी कलकत्ता की चटकल मिलों में खटने भेजता था तो कभी गांजे का व्यापार करने मोरंग, कभी भेडा बनने कामरूप भेजता था तो कभी गिरमिटिया बनने सूरीनाम या फिर अप्रवासी मजदूर बनाकर बम्बई-दिल्ली कमाने गए लोगों को अपने ही देस में बिदेसिया बना देता था. 

Amar Ujala 13 Feb 2022

आगे पढिए: पाठकों से गपशप - चिठिया बाँचे सब कोई - 1

पिछला भाग: गंगा बहती हो क्यों - पार्ट 3 ; छुक-छुक करती रेलगाड़ी 

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