NK's Post

Resentment against hike in bus fare mounting in Bhopal

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NK SINGH Though a Govt. directive has frustrated the earlier efforts of the MPSRTC to increase the city bus fares by as much as 300 per cent, the public resent even the 25 per cent hike. It is "totally unjust, uncalled for and arbitrary", this is the consensus that has emerged from an opinion conducted by "Commoner" among a cross-section of politicians, public men, trade union leaders, and last but not least, the common bus travelling public. However, a section of the people held, that an average passenger would not grudge a slight pinche in his pocket provided the MPSRTC toned up its services. But far from being satisfactory, the MPSRTC-run city bus service in the capital is an endless tale of woe. Hours of long waiting, over-crowding people clinging to window panes frequent breakdowns, age-old fleet of buses, unimaginative routes and the attitude of passengers one can be patient only when he is sure to get into the next bus are some of the ills plaguing the city b...

नई दुनिया यानी प्रखर बौद्धिकता की धार

Fourth Estate


Nai Dunia: Coming of age of Hindi journalism


NK SINGH


नई दुनिया के बारे में पहली दफा प्रतिपक्ष में अपने वरिष्ठ सहयोगी गिरिधर राठी से सुना। 1973 में वे भोपाल गए थे, मध्यप्रदेश सरकार द्वारा आयेाजित सांस्कृतिक उत्सव में हिस्सेदारी करने।

लौटकर दिल्ली आए तो जितना वे अशोक वाजपेयी की आयोजन कला से मुग्ध थे, उससे कहीं ज्यादा इंदौर से छपने वाले एक दैनिक से । न केवल उसकी छपाई एवं साज-सज्जा, बल्कि उसकी संपादकीय पकड़ भी उसे तमाम हिन्दी अखबारों से अलग खड़ा करती थी।

नई दुनिया का नियमित पाठक मैं बना 1974 में जब अंगरेजी दैनिक हितवाद में नौकरी करने भोपाल पहुँचा। इंदौर से छपकर आने और देर रात की खबरें कवर न कर पाने के बावजूद नई दुनिया शहर में सबसे ज्यादा बिकने वाला अखबार था। शायद  वहीं से छपने वाले नवभारत से भी ज्यादा।

बिहार से ताजा-ताजा आए और अत्यंत अपठनीय आर्यावर्त और प्रदीप तथा बेजान नवभारत टाइम्स और हिन्दुस्तान की खुराक पर पले मुझ जैसे पाठक के लिए नई दुनिया आंखें खोलने वाला अखबार था। पहली दफा लगा कि हिन्दी के अखबार भी अंगरेजी का मुकाबला कर सकते हैें। पत्रिकाओं में दिनमान पहले ही इस मिथक को तोड़ चुका था।

कई मामलों में नईदुनिया तब छपने वाले ज्यादातर अंगरेजी अखबारों से भी बेहतर था। खासकर छपाई और साज-सज्जा के मामले में। शायद हिन्दू के अलावा और किसी अखबार ने छपाई की आधुनिकतम तकनीकों पर तब इतना पैसा खर्च नहीं किया था.

राजेंद्र माथुर 

पर उसका जो गुण उसे भीड़ से अलग हटकर खड़ा करता था, वह थी उसकी प्रखर बौद्धिकता । श्री राजेन्द्र माथुर तब विधिवत संपादक नहीं बने थे, पर जैसा कि एक पाठक ने लिखा था और उन्होंने छापा भी, वे "राजनीति के गुलशन नंदा" के रूप में छा चुके थे।

पत्रकारिता के क्षेत्र में अकसर कहा जाता है कि विषय कोई बोझिल नहीं होता, उसे लिखने वाले उसे दुरूह बनाते हैं।

अपने प्रशंसकों और पहचान वालों में रज्जू बाबू के नाम से विख्यात श्री माथुर जटिल से जटिल और अति बोझिल विषयों को भी मुहावरेदार, व्यंग्यात्मक और चटपटी शैली में सामान्य पाठकों के लिए परोसते थे।

यह उनकी बौद्धिकता का ही कमाल था कि नई दुनिया के कई पाठक पहले संपादकीय पृष्ठ खोलते थे। तब के ज्यादातर हिन्दी अखबारों के बौद्धिक दिवालिएपन और छाती पीटने वाली शैली में लिखे लेखों और अग्रलेखों को देखकर रज्जू बाबू अक्सर मजाक में कहा करते थे कि "नईदुनिया अंगरेजी में निकलने वाला हिन्दी का एकमात्र अखबार है।"

अखबार में जितना कुछ पाठकों के सामने आता है, उससे कई गुना ज्यादा पीछे होता है।

प्रूफ पढ़ने और ले-आउट बनाने से लेकर सही टाइप का चयन, प्रेस का रख-रखाव और डेस्क पर बैठे संपादकीय कर्मियों का कौशल पाठकों के सामने नहीं आ पाता, पर उनका योगदान रिपोर्टरों और संपादकीय लेखकों से बीसा नहीं तो उन्नीसा भी नहीं है।

इमरजेंसी में आजादी की मशाल

मैं जब नई दुनिया में काम करने पहुंचा तो इमरजेन्सी का जमाना था। तब मैंने जाना कि किस तरह उसके प्रबंध संपादक और मालिकों में से एक, श्री नरेन्द्र तिवारी, दिलेरी के साथ प्रेस की आजादी की मशाल थामे थे।

तब मैंने जाना नई दुनिया अगर विभिन्न विरोधी विचारधारा वाले लेखकों और विचारकों को प्लेटफार्म प्रदान कर अपने पन्नों पर बौद्धिक ऊर्जा पैदा करता था, तो उसके पीछे प्रधान संपादक श्री राहुल वारपुते का लिवरल रवैया था.

तभी मैंने पाया कि मेरी बाजू की टेबल पर बैठने वाले श्री अभय छजलानी मेरे संपादक ही नहीं, उसके मालिकों में से भी एक हैं, और नई दुनिया की जिस साज-सज्जा को देखकर मैं मुग्ध होता था, उसके पीछे उन्हीं का कमाल है.

मेरा परिचय ठाकुर जयसिंह से हुआ और मैंने पाया कि अंगरेजी का समुचित ज्ञान नहीं होने के बावजूद किस कुशलता और तेजी के साथ वे अखबार का लगभग पूरा पहला पेज अकेले तैयार कर देते थे।

नई दुनिया को अपने को नई दुनिया परिवार कहने का पूरा हक है।

लोकतांत्रिक माहौल

उसके दफ्तर में परंपरागत रूप से लोकतांत्रिक माहौल रहा है। एक विशाल हाॅल में सारे लोग तब आसपास की टेबलों पर बैठते थे, प्रधान संपादक से लेकर प्रूफ रीडर तक। उसकी वजह से दूसरे अखबारों के विपरीत यहाँ बोहेमियन माहौल नहीं था।

न कोई टेबल पर पाँव रखता था न कोई हाथ पोंछकर न्यूज प्रिन्ट फर्श पर फेंकता था। न कोई किसी पर चिल्लाता था, जो कि अखबार के दफ्तरों में आम दृश्य हैं। दफ्तर की निचली पायदान पर बैठे लोगों के लिए जकड़न का माहौल था.

पर उसके कई फायदे भी थे. काम में मुस्तैदी रहती थी और संवादहीनता कतई नहीं थी। आप नई दुनिया के पितृपुरूष बाबू लाभचंद छजलानी के पास ---- जो अपनी टेबल से लेकर प्रेस तक (जो उनका प्रथम अनुराग था) सतत चक्कर काटते रहते थे ---- सीधे पहुंचकर अपनी बात रख सकते थे।

एक दफा मेरी सामने की टेबल पर बैठने वाले श्री महेन्द्र सेठिया अपने स्कूटर के पीछे बैठाकर मुझे घर छोड़ने गए। वे तब क्षेत्रीय खबरों की कांट-छांट करते थे। काफी बाद में ही मुझे मालूम पड़ पाया कि वे भी अखबार के मालिकों में से एक हैं।

श्री तिवारी लूना पर घर से दफ्तर आते-जाते थे और अभयजी को अक्सर मैंने सुबह आठ बजे से रात 11 बजे तक टेबल पर पाया है।

ऐसा माहौल शायद ही भारत के किसी और अखबार के दफ्तर में है। सभ्यतापूर्ण अनौपचारिकता और बौद्धिक प्रखरता के जिस माहौल में मैंने ढ़ाई साल गुजारे, सदा उसकी याद सताएगी।

(लेखक ने नई दुनिया में अगस्त 1976 से जनवरी 1979 तक काम किया था।)

Nai Dunia, 8 Dec 1995

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Comments

  1. एक जमाने मे करीब बहुत पहिले हम हर शाम जीवाजी पुस्तकालय गुना जाकर चंपक लोटपोट चाचा चोधरी जैसी पुस्तकें नियमित पडते थे घर पर उर्दू अखबार प्रताप व हिन्दी नईदुनिया आते थे ।प्रमाणित खबरे रेडियो बीबीसी लंदन से घर के लोग सुनते थे जब तरूण अवस्था मे हमने जाना कि अखबारों व रेडियो पर भी सही खबरे नही आती ।प्रसारण में बीबीसी का एवं आखबार नईदुनिया कां ही सही खबरें देता है ।यह बात आज तक मन मे घर किये हुए है ।पर पता नही दो साल से घर मे नईदुनिया की जगह भास्कर आने लगा ।मेरी कालोनी मे नईदुनिया का कोई भी नही खरीदता ।लेकिन मेरी विश्वसनीयता जरूरत इसके साथ है ।

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