NK's Post

Bail for Union Carbide chief challenged

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NK SINGH Bhopal: A local lawyer has moved the court seeking cancellation of the absolute bail granted to Mr. Warren Ander son, chairman of the Union Carbide Corporation, whose Bhopal pesticide plant killed over 2,000 persons last December. Mr. Anderson, who was arrested here in a dramatic manner on December 7 on several charges including the non-bailable Section 304 IPC (culpable homicide not amounting to murder), was released in an even more dramatic manner and later secretly whisked away to Delhi in a state aircraft. The local lawyer, Mr. Quamerud-din Quamer, has contended in his petition to the district and sessions judge of Bhopal, Mr. V. S. Yadav, that the police had neither authority nor jurisdiction to release an accused involved in a heinous crime of mass slaughter. If Mr. Quamer's petition succeeds, it may lead to several complications, including diplomatic problems. The United States Government had not taken kindly to the arrest of the head of one of its most powerful mul...

कौन थे शंकर गुहा नियोगी?

An Icon of New Left in India


नरेन्द्र कुमार सिंह



शंकर गुहा नियोगी से मेरी पहली मुलाकात जेल में हुई थी। यह 1977 का साल था और 18 महीने देश को रौंदने के बाद इमरजेंसी उठाई जा चुकी थी। देश की हवा में एक नई ताजगी तैर रही थी। आजादी की हवा में लोग सांस लेना सीख रहे थे।

नियोगी के बारे में छत्तीसगढ़ के अखबारों में लगातार सनसनीखेज खबरें छप रही थी। ज्यादातर अखबार उन्हें नक्सलवादी करार दे रहे थे। उनके बारे में अतिरंजित खबरें छप रही थी।

एक जगह छपा कि नियोगी की एक हुंकार पर दिल्ली राजहरा के दस-दस हजार मजदूर हथियार लेकर एक मिनट में सड़क पर आ जाते थे। उनकी अद्भुत संगठन क्षमता के बारे में अखबारों के पन्ने भरे थे। किस तरह उन्होंने राजहरा की लोहा खदानों में स्थापित कम्यूनिस्ट तथा कांग्रेसी ट्रेड यूनियनों का सफाया कर दिया।

किस तरह बाहर से आया एक अज्ञात बंगाली नवयुवक, जिसके बारे में कोई कुछ नहीं जानता था, रातोंरात पूरे इलाके का बेताज बादशाह बन गया। किस तरह निहत्थे नियोगी को सामने पाकर हथियारबंद पुलिस वालों के दस्ते जान छुड़ाकर भागते थे।

एक अखबार ने किस्सा छापा कि नियोगी की तलाश कर रहे पुलिस वालों ने एक नाके पर एक जीप रोकी। जीप में मुंह पर गमछा बांधे दोहरे बदन का एक युवक बैठा था। जब पुलिस वालों ने उससे पूछा तो उसने कहा नियोगी। और फिर नियोगी गायब हो गया। पुलिस वाले देखते रहे।

एक अखबार में छपा कि एक ही समय में पूरे इलाके में नियोंगी की शक्ल सूरत वाले तीन-चार युवक घूम रहे थे। एक ही समय पर कई जगह पर कई नियोगी! नियोगी एक किंवदंती बन गये थे।

वह तो कुछ और निकला!

उस समय मैं इंदौर के एक अखबार में काम करता था। एक खूंखार नक्सलवादी से सनसनीखेज इंटरव्यू की आशा में मैं रायपुर जेल पहुंचा. 

नियोगी के संगठन ने दिल्ली राजहरा में हड़ताल की थी। उस संघर्ष की परिणति पुलिस फायरिंग में हुई थी जिसमें 12 मजदूर मारे गए थे। और इस तरह नियोगी जेल में आ गए थे।

रायपुर जेल की मुलाकात कक्ष में जो युवक मुझसे मिलने आया वो सीधा-सादा दिखने वाला, एक अतिशय विनम्र और शर्मीला इंसान था। शांत चेहरा, चमकीली आंखें, धीमी आवाज, सुलझी बातें. कपड़े ऐसे मुड़े-तुड़े कि मानो सीधे सड़क पर गिट्टी कूटकर आ रहा हो। (बाद में मालूम पड़ा कि वे सचमुच पत्थर खदानों में गिट्टी तोड़ने का काम करते थे.)

राजहरा यात्रा से लौटने के बाद मैंने कई जगह नियोगी के काम के बारे में लिखा। नई दुनिया में तो मैं काम करता ही था। उस समय हिन्दी में एक पत्रिका चालू हुई थी रविवार। वहां भी नियोगी के बारे में मैंने लिखा। पर नियोगी के काम पर लिखे मेरे जो लेख सबसे अधिक चर्चित हुए वे इकोनॉमिक एंड पॉलिटिकल वीकली में छपे थे।

इपीडब्लू ने लेखों की एक श्रृंखला छापी. एक-डेढ़ महीने की अवधि में छपे उन पांच लेखों ने नियोगी के और मजदूर यूनियन के क्षेत्र में उनके द्वारा किए जा रहे काम के बारे में पूरे हिन्दुस्तान का ध्यान खींचा। इकोनॉमिक एंड पॉलिटिकल वीकली देश की शायद सबसे प्रतिष्ठित पत्रिका है। खासकर अकादमिक क्षेत्र में इस पत्रिका की काफी इज्जत है।

नए भारत का सपना 

वह क्या चीज थी जिसने मुझे नियोगी के बारे में प्रभावित किया? वे तब 33 साल के थे। काफी दिनों से नए भारत का सपना देख रहे थे और उसके लिए काम कर रहे थे।

मैं कई कम्युनिस्ट नेताओं से मिल चुका था। कुछ को नजदीक से जानता था। मैं चारू मजुमदार और कानू सान्याल से भी मिल चुका हूं। बिहार में सीपी आईएमएल के एक नेता होते थे सत्य नारायण सिन्हा, उनके काफी निकट था।

पर नियोगी उन सबसे अलग थे। मेरी नजर में नियोगी उन कुछ गिने-चुने मार्क्सवादियों में से थे जिन्होंने सचमुच में अपने आप को डिक्लासीफाई किया था। हमारे ज्यादातर कम्युनिस्ट नेता मध्य वर्ग या उच्च मध्य वर्ग से आते थे। मसलन जमींदार के बेटे ईएमएस। या पाइप पीने वाले ज्योति बाबू।

कम्युनिस्ट आंदोलन में ऑक्सफोर्ड और केम्ब्रिज में पढ़े लोगों का दबदबा हुआ करता था। वास्तव में उस वर्ग की दबदबा अभी भी कायम है। ज्यादातर मार्क्सवादी नेता कभी भी अपने आप को मजदूरों और किसानों के साथ एकरूप नहीं कर पाए।

यही नियोगी की सफलता थी। वे खुद मध्यवर्ग से आते थे। पर जब उन्होंने किसानों का संगठन बनाने की सोची तो एक गांव में जाकर बटाईदार का काम करने लगे। खेत जोतते थे। जब उन्होंने मजदूर संगठन बनाने की सोची तो लोहे की खदानों में जाकर दिहाड़ी मजदूर बन गए।

मजदूर महिला से विवाह

वहीं झुग्गी में रहते थे। और वहीं एक मजदूर महिला से विवाह कर उन्होंने गृहस्थी बसाई। इस तरह से नियोगी ने अपने आप को डिक्लासीफाई किया। मजदूर उन्हें अपने में से एक मानते थे।

ऐसे व्यक्ति द्वारा चलाई जा रही ट्रेड यूनियन को तो अलग होना ही था। दिल्ली राजहरा के मजदूरों में दो धड़े थे। एक था डिपार्टमेंटल मजदूरों का। उन्हें भिलाई स्टील प्लांट से तनख्वाह मिलती थी। यह मजदूरों का खाता-पीता तबका था। अर्थात ज्यादा चंदा देने में समर्थ । स्थापित ट्रेड यनियनें उन्हीं के बीच सक्रिय थी।

मजदूरों का दूसरा धड़ा था ठेका मजदूरों का। ठेकेदार बुरी तरह उनका षोषण करते थे । और ट्रेड यूनियन वाले उनकी परवाह नहीं करते थे। नियोगी ने अपने संगठन के लिए उन्हीं उपेक्षित लोगों को चुना।

नियोगी ने धीरे-धीरे ट्रेड यूनियन आंदोलन को सामाजिक बदलाव का जरिया बनाया। उनकी अगुवाई में मजदूर महिलाओं ने शराबबंदी करवाई। मजदूरों ने अपने अस्पताल, स्कूल और पुस्तकालय खोलें। नियोगी के बाद छत्तीसगढ़ का ट्रेड यूनियन आंदोलन एक नई दिशा की ओर गया।

आखिरी भोजन

कई मुद्दों पर नियोगी से मेरे मतभेद भी रहे, पर हमारी दोस्ती कभी नहीं टूटी । 28 सितंबर 1991 की जिस रात नियोगी की निर्मम हत्या हुई उस रात हमने साथ भोजन किया था। वह शायद उनका अंतिम भोजन था।

मैं तब इंडिया टुडे के लिए काम करता था। और हम बस्तर के दौरे से लौट रहे थे। उस इलाके में जाएं और नियोगी से मुलाकात न करें ये कैसे संभव था! उन दिनों वे भिलाई में मजदूरों का एक आंदोलन चला रहे थे और काफी चुनौतियों का सामना कर रहे थे। दिन में हमारी मुलाकात हुई और उन्होंने मुझे बताया कि भिलाई के कुछ उद्योगपतियों ने उनकी हत्या के लिए सुपारी दी है।

मेरे साथ मैगज़ीन के फोटोग्राफर प्रशांत पंजियार भी थे. हम रायपुर के होटल पिकेडली में रूके थे। रात को हमने नियोगी को और एक अन्य मित्र राजेन्द्र सायल को होटल में भोजन पर बुलाया। हम देर रात तक रूस में कम्युनिज्म के पतन पर बात करते रहे। उस मुलाकात के दौरान भी नियोगी ने मुझे कहा था कि उनकी जान को खतरा है। उन्होंने उन उद्योगपतियों के नाम भी लिए थे जो उनके पीछे पड़े थे।

उसी रात भिलाई के अपने पार्टी घर में सो रहे नियोगी पर भाड़े के हत्यारों ने गोली मारकर उनकी हत्या कर दी। नियोगी की हत्या के बाद मैं सीबीआई की तरफ से गवाह के रूप में अदालत में पेश हुआ था। वहां मैंने उन उद्योगपतियों के नाम भी बताए थे। पर शायद ही उनमें से किसी का कुछ बिगड़ा हो। उनमें से कई उद्योगपति अभी भी इस ‘उदारवादी’ अर्थव्यवस्था का फायदा उठाकर फल-फूल रहे हैं।

शहीद शंकर गुहा नियोगी पुस्ताकालय एवं सांस्कृतिक केन्द्र, भोपाल, के मार्च २०१२ में उद्घाटन के अवसर भाषण के चुनिंदा अंश

Peoples Samachar, 26 March 2012

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