NK's Post

Resentment against hike in bus fare mounting in Bhopal

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NK SINGH Though a Govt. directive has frustrated the earlier efforts of the MPSRTC to increase the city bus fares by as much as 300 per cent, the public resent even the 25 per cent hike. It is "totally unjust, uncalled for and arbitrary", this is the consensus that has emerged from an opinion conducted by "Commoner" among a cross-section of politicians, public men, trade union leaders, and last but not least, the common bus travelling public. However, a section of the people held, that an average passenger would not grudge a slight pinche in his pocket provided the MPSRTC toned up its services. But far from being satisfactory, the MPSRTC-run city bus service in the capital is an endless tale of woe. Hours of long waiting, over-crowding people clinging to window panes frequent breakdowns, age-old fleet of buses, unimaginative routes and the attitude of passengers one can be patient only when he is sure to get into the next bus are some of the ills plaguing the city b...

स्मृति के पुल : गंगा बहती हो क्यों . . . Part 1


Steamer near Pahleja Ghat, Bihar, Courtesy - Wikipedia

Ganga and her people

 NK SINGH

 Published in Amar Ujala of 23 Jannuary 2022 

तब गंगा में लाशें नहीं तैरा करती थीं। स्टीमर चला करते थे। पटना में गंगा पर पुल बनने के बाद स्टीमर की यात्रा का रोमांस जाता रहा। पर आज भी जब गंगा टपने के लिए इस पुल से गुजरते हैं, नजर बरबस पहलेजा घाट की तरफ घूम जाती है। 

वहाँ से किसी जमाने में ये स्टीमर चला करते थे। कानों में जहाज का भोंपू सुनाई देता है। ... ए कुली, थोड़ा फुर्ती से, जहाज खुलने वाला है। छूट गया तो रात भर झूलते रहो। 

अब तो पटना में गंगा टपने के लिए दो-दो पुल हो गए हैं, तीसरे की तैयारी है. पर पहले इसी पहलेजा घाट से पानी का जहाज पकड़कर ही नदी के उस पार जाया जा सकता था।  

गंगा की तराई नदियों से अटी है। गंगा, गंडक, कोशी, कमला और सोन जैसी विख्यात औरकुख्यात नदियां जो कभी अनाज की सौगात लाती हैं तो कभी बाढ़ की विभीषिका।

बिहार में ५०० किलोमीटर का फासला तय करने वाली गंगा प्रदेश को दो फांक बांटती है। आजादी के १० साल बाद १९५९ में मोकामा में नदी पर पहला पुल बना। तबतक ये स्टीमर प्रदेश के लिए जीवन सेतु का काम करते थे.  

एक समय बिहार की नदियों में स्टीमरों का जाल था. बक्सर, पटना, मोकामा, मुंगेर, भागलपुर, साहिबगंज जैसे व्यस्त घाटों पर गंगा तट दिन-रात गुलजार रहा करता था। 

यात्री वहाँ जहाज पकड़ने के लिए छोटी लाइन की कछुआ चाल घाट गाड़ी पर सवार होकर पहुंचते थे। भोंपू बजाकर यात्रियों को बुलाते स्टीमर नदी के किनारे खड़े देखकर उनके कदम अपने-आप तेज हो जाते थे। 

Steamer Hooghly near Bhagalpur, painted in 1828, Courtesy - British Library

गुपचुप, सिंघारा और चिनिया बदाम 

रास्ते में दोनों तरफ खाने-पीने की दुकानें मिलती थीं -- पूड़ी-जलेबी तलने की खुशबू, परहेजी लोगों के लिए दही-चूड़ा और सत्तू, चटोरों के लिए टमाटर की चटनी के साथ सिंघाराऔर साथ में मिठाई। 

आप खुशकिस्मत हों तो आत्मा की गहराइयों तक उतरने वाला हाजीपुर का प्रसिध्द चिनिया केला भी नसीब हो जाता था। 

इन दुकानों के बीच में रामदाना की लाई, चनाजोर गरम और गुपचुप के खोमचे होते थे। कदम-कदम पर पान-सिगरेट की गुमटियाँ। चाय की केतली से उठती भाफ तलब तेज कर देती थी। कभी उधर से आने वाला स्टीमर लेट हो तो बालू में पालथी मारकर चिनिया बदाम खाते रहो. 

इन दुकानों पर आप बच्चों के लिए खिलौने खरीद सकते थे। मनिहारी की दुकानों पर औरतें सास की नजर बचाकर तरह-तरह के सामान खरीद सकती थीं --- टिकुली-सिंदूर, रंग-बिरंगे फुदने, रिबन और चूड़ी-लहटी ही नहीं, स्नो-पाउडर भी। 

कटिहार के पास तो एक घाट का नाम ही है मनिहारी घाट। कुल मिलाकर एक अच्छा-खासा बाजार। गजेटियर बताते हैं कि ये घाट कभी व्यापार-व्यवसाय के व्यस्त केंद्र होते थे। 

गंगा की अथाह जलराशि पर तैरते इन जहाज़ों की अपनी ही एक दुनिया थी. यात्रिओं से खचाखच भरे ये दो मंजिला स्टीमर सर्दियों में भाप और कुहासे में लिपटे रहते और गर्मियों में कोयले के धुंए में. अनुभवी पैसेंजर बैठने के लिए स्टीमर का वह हिस्सा चुनते थे जहाँ कोयले के कण कम आते थे. 

पटना में महेन्द्रू घाट से हमारे बी.एन.कालेज का हॉस्टल कुछ फर्लांग की दूरी पर ही था. सामान हो तो रिक्शा पकड़ो, और न हो तो पैदल भी चले जाओ. स्टीमर से गंगा टपने में एक-डेढ़ घंटे लग जाते थे, ज्यादा भी अगर नदी में बाढ़ हो. 

This scene of Bandini was filmed at Sahibganj Ghat, Jharkhand, in 1960s

मेरे साजन हैं उस पार . . . 

इस यात्रा के दौरान अक्सर बंदिनी का आखिरी दृश्य आंखों के सामने तैर जाता था. आपने बंदिनी तो देखी ही होगी -- सिनेमा के परदे पर बिमल राय की वह अमर कलाकृति. मेरी तरह शायद आपके ज़हन में भी फिल्म का वह आखिरी दृश्यहमेशा के लिए अंकित हो गया होगा.

नदी का विस्तृत पाट. किनारे कोयले का धुंआ उगलता विशाल स्टीमर. दूसरी तरफ बिछी पटरी पर खड़ी रेलगाड़ी और उसका भाप छोड़ता इंजन. बीच में ज़नाना और मर्दाना हिस्सों में बंटा झोपड़ीनुमा एक वेटिंग हाल. 

टिमटिमाती रोशनी के बीच रेत पर इधर से उधर जा रहे लोगों के धुंधले चेहरे. एक तरफ स्टीमर अपना भोंपू बजाकर बीमार अशोक कुमार को बुला रहा है, दूसरी तरफ बंदिनी नूतन की रेलगाड़ी की सीटी बज रही है. 

और, उस स्वप्निल माहौल में ‘गुडलक टी हाउस’ से उठती सचिन दा की आत्मा की गहराइयों को छूने वाली आवाज --- ओ रे मांझी, मेरे साजन हैं उस पार... 

उस जहाज पर सचिन दा तो कभी नहीं मिले, पर कोई न कोई सूरदास अपनी डफली बजाकर डेढ़ घंटे के उस सफ़र को छोटा बना देते थे. सही जगह और सही समय पर संगीत सुनें तो सोनू निगम भी भीमसेन जोशी लगने लगते हैं.

Amar Ujala of 23 Jannuary 2022 

आगे पढिए: गंगा बहती हो क्यों - पार्ट 2; पटना में 62,000 नौकाएं

Amar Ujala 23 January 2022

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