NK's Post

Resentment against hike in bus fare mounting in Bhopal

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NK SINGH Though a Govt. directive has frustrated the earlier efforts of the MPSRTC to increase the city bus fares by as much as 300 per cent, the public resent even the 25 per cent hike. It is "totally unjust, uncalled for and arbitrary", this is the consensus that has emerged from an opinion conducted by "Commoner" among a cross-section of politicians, public men, trade union leaders, and last but not least, the common bus travelling public. However, a section of the people held, that an average passenger would not grudge a slight pinche in his pocket provided the MPSRTC toned up its services. But far from being satisfactory, the MPSRTC-run city bus service in the capital is an endless tale of woe. Hours of long waiting, over-crowding people clinging to window panes frequent breakdowns, age-old fleet of buses, unimaginative routes and the attitude of passengers one can be patient only when he is sure to get into the next bus are some of the ills plaguing the city b...

कैसे हड्डियों के एक डॉक्टर ने लोगों के दिल में जगह बनायीं

A hospital that employs deaf & dumb


उनका काम बोलता है


NK SINGH




जब तीन साल पहले नर्मदा तिवारी जबलपुर के त्रिवेणी अस्पताल में हड्डी रोग विषेषज्ञ डाॅ. जितेंद्र जामदार के चैंबर में किसी ‘उपयुक्त‘ नौकरी की चाहत के साथ दाखिल हुए थे तब डाॅ. जामदार ने पहले तो उन्हें टरका देने की सोची।

एक मूक-बधिर नवयुवक से भला वे क्या काम ले सकते थे, हालांकि एक पद खाली था। अस्पताल के परिसर में एसटीडी बूथ पर बैठने के लिए एक व्यक्ति की जरूरत थी, लेकिन क्या उनके सामने खड़ा यह 21 वर्षीय युवक वह काम कर सकता था?

डाॅ. जामदार ने थोड़ी देर विचार किया। वे उस युवक को निराश नहीं करना चाहते थे। आखिरकार, उन्होंने उसे एक मौका देने का फैसला किया और तिवारी को काम सौंप दिया।

यह ऐसी पहल थी, जो बाद में एक अच्छी परंपरा में बदल गई।

शारीरिक रूप  से विकलांग लोग आज देश में हर जगह टेलीफोन बूथ चलाते दिख जाते हैं। लेकिन ‘‘शुरूआती मुश्किलों के बावजूद‘‘ तिवारी की निष्ठा और क्षमता ने डाॅ. जामदार को इतना प्रभावित किया कि उनहोंने ‘मूक-बधिरों‘ को चिकित्सा सहायक के रूप में नियुक्त करने पर विचार शुरू कर दिया।

बधिर लोग मौका मिलने पर संभवतः अपनी काबिलियत साबित करने के लिए ज्यादा मेहनत करेंगे। तिवारी के कामकाज को देखकर ऐसा ही लगा।

एक-चौथाई कर्मचारी मूक-बधिर 

जल्दी डाॅ. जामदार ने 16 बधिर लड़कों को अपने कर्मचारियों के दल में शामिल कर लिया। उनकी संख्या अस्पताल के कुल कर्मचारियों की एक-चौथाई हो गई।

नए प्रशिक्षुओं ने पट्टी बांधने, प्लास्टर चढ़ाने से लेकर दवा देने और नब्ज देखने तक के काम जल्दी सीख लिए और अपने काम को बखूबी अंजाम दिया। आज वे रोगियों का रक्तचाप भी सही-सही माप लेते हैं।

डाॅ. जामदार बताते हैं, ‘‘सच तो यह है कि आॅपरेशन थिएटर में वे काफी मददगार साबित होते हैं। एक बार उन्होंने काम सीख लिया तो वे तथाकथित सामान्य लोगों से बेहतर कर्मचारी होते हैं क्योंकि उनका ध्यान इधर-उधर बहुत कम भटकता है। इसके अलावा वे पूरी तरह खामोश  रहते हैं, जो आॅपरेशन के दौरान बहुत महत्वपूर्ण होता हैं।‘‘

ऐसे लोगों के साथ संभवतः केवल एक ही समस्या हो सकती है, वह है बातचीत की। बधिर कर्मचारी मुख्यतः संकेतों की भाषा में बात करते हैं और मरीजों को उनसे बातचीत में परेशनी हो सकती है।

लेकिन अब कई कर्मचारी उनकी भाषा समझ गए हैं और मरीजों के साथ संवाद में जब कोई उलझन पैदा होती है तो वे फौरन बीच में आकर बातचीत को आसान बनाते हैं।

ये लड़के अपनी ओर से बहुत चुस्त और चौकस हैं। डाॅ. जामदार कहते हैं, ‘‘सीखने को उत्सुक वे आपके चेहरे की ओर देखते रहते हैं।‘‘ इन विकलांग चिकित्सा सहायकों के बारे में लोगों को लगता है कि उनमें संवेदनशीलता कुछ ज्यादा ही होती है।

डाॅ. जामदार की सर्जन पत्नी शिरीष कहती हैं, ‘‘कभी‘कभार मैं उनके बारे में सोचती हूं कि वे अलौकिक हैं। जब वे मुझे देखते हैं तो लगता है कि वे मेरे विचारों को पढ़ रहे हैं।‘‘

रोजगार से मिला आत्मविश्वास 

वैसे तो ये लोग बेरोजगारी का दंश झेलते रहते मगर अस्पताल के काम ने इनमें आत्मविश्वा
स भरा है और अब वे मुख्यधारा में बेहतर ढंग से शामिल हो पाते हैं। कई प्रशिक्षु तरक्की पाकर सरकारी नौकरी भी पा गए।

मसलन, 26 वर्षीय भीमराव को एक साल तक इस अस्पाताल में नौकरी के बाद मध्य प्रदेश सरकार के शिक्षा विभाग में चपरासी की नौकरी मिल गई। परोपकारी डाॅ. जामदार लड़कों को अपने रसूख का इस्तेमाल कर दूसरी नौकरी के लिए प्रेरित करते हैं।

बीस वर्षीय उमर फारूक संकेत की भाषा में बताते हैं, ‘‘ अस्पताल में काम करने से समाज में हमारी इज्जत बढ़ी है।‘‘

विकलांग लोगों के संवेदनशील स्वभाव के मद्देनजर समाज में उनकी इज्जत या खुद उनके भीतर उत्साह बेहद जरूरी है। मसलन, अगर अस्पताल परिसर को साफ कराने की जरूरत होती है तो प्रबंधन के लोग विकलांग लोगों के साथ सामान्य लोगों को भी उस काम में लगाते हैं।

अस्पताल में काम करने वाले 25 वर्षीय बधिर सुनील गढ़वाल का, जो एक पुलिसवाले के बेटे हैं, कहना है, ‘‘यह भाव नहीं पैदा करना चाहिए कि छोटा काम केवल बधिरों को दिया जाएं।‘‘

इस संवेदनशीलता के बावजूद विकलांग कर्मचारी बहुत खुश रहते हैं और अस्पताल के माहौल को खुशगवार रखते हैं। वे ‘सामान्य‘ कर्मचारियों की कीमत पर मजाक वगैरह भी करते हैं।

सो, तीन साल पहले तिवारी की जिस नियुक्ति को आजमाइश  के रूप में लिया गया था, अब वह अस्पताल में सार्थक मिशन बन गया है। डाॅ. जामदार को हमेशा लगता था कि बहरे लोगों को जिंदगी में बढ़िया काम मिलना चाहिए और उन्होंने अपनी तरह से उन्हें यह दिला दिया।

इस सौम्य सर्जन का कहना है, ‘‘इस प्रक्रिया में मुझे खुद फायदा हुआ है।‘‘ वे हड्डियों के विषेषज्ञ हैं लेकिन वे लोगों के दिलों में पहुंच गए हैं।

India Today (Hindi) 2 Feb 2000

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Comments

  1. कितनबहुत सूंदर लिखा सर आपने

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  2. This comment has been removed by a blog administrator.

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