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एमपी इलेक्शन: सर्वे की कोख से निकली लिस्ट

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  Kamal Nath is going out of way to prove he is not anti-Hindu MP Assembly Election Update: 14 October 2023 NK SINGH कमलनाथ के प्लान के मुताबिक काँग्रेस की लिस्ट इस दफा सर्वे-नाथ ने बनाई है। प्रदेश के नेताओं में आम तौर पर सहमति थी कि लिस्ट इस बार सर्वे के आधार पर बनेगी। पर क्या यह महज संयोग है कि यह लिस्ट राहुल गांधी के गेम-प्लान के मुताबिक भी है? वे अपनी पार्टी के क्षत्रपों के कार्टेल को ध्वस्त करना चाहते हैं, जो 10-15 एमएलए के बूते पर प्रदेश की पॉलिटिक्स चलाते हैं। सर्वे की कोख से निकली लिस्ट कमोबेश जीत की संभावना के आधार पर बनी है। एनपी प्रजापति जैसे अपवादों को छोड़कर कोई सप्राइज़ नहीं। बीजेपी की लिस्ट देखते हुए, काँग्रेस इस बार फूँक-फूक कर कदम रख रही थी। भाजपा उम्मीदवारों की पांचों लिस्ट 2018 के मुकाबले काफी बेहतर थी। नाम दिल्ली ने तय किए, प्रदेश के किसी भी नेता के प्रभाव से परे। चयन का आधार गुटबाजी नहीं, जीत की संभावना रही। इसलिए, दोनों तरफ के उम्मीदवारों का लाइन-अप देखकर लगता है, मुकाबला कांटे है। टिकट न मिलने से निराश नेताओं की बगावत का दौर शुरू हो गया है। यह हर चुनाव में होता है।

संविधान पर हमला: तब और अब



Threats to Indian Constitution

 NK SINGH

 हम स्कूल की किताबों में फ्रांस की क्रांति के बारे में पढ़ते थे। शायद अभी पढ़ाया जाता होगा ---- अगर टेक्स्ट बुक में जो ‘सुधार’ हो रहे हैं, उनकी चपेट में फ्रेंच रेवेल्यूशन भी न आया हो तो।

फ्रांस की क्रांति में एक नारा गूंजा था --- स्वतंत्रता, समता और बंधुत्व। दुनिया के सारे लोकतान्त्रिक देशों के संविधान पर हम नजर डालें तो सबकी मूल आत्मा इन्ही तीन क्रांतिकारी मूल्यों के आस-पास घूमती नजर आती है।

भारत का संविधान भी इन्ही शाश्वत मूल्यों पर आधारित है।

पिछले 75 सालों में इस संविधान में 100 से ज्यादा संशोधन हो चुके हैं। पर, इसके बावजूद, वे शाश्वत मूल्य अभी भी संविधान की आत्मा हैं। उसके नीति निर्देशक सिद्धांतों में इन्ही तीन मूल्यों को विस्तार से बताया गया है।

संविधान को लेकर अभी देश में जोरों से बहस चल रही है, खासकर उनके पालन के बारे में। वास्तव में सारी दिक्कत संविधान को व्यवहार में उतारने को लेकर है।

पिछले 75 साल के इतिहास पर नजर डालें तो नजर आता है कि संविधान की अवहेलना वही लोग ज्यादा करते हैं, जिनपर उसके पालन की जिम्मेदारी है।

अभी भी संविधान और उसके प्रावधान वहीं हैं। हम भारत के लोग -- जिन्होंने इस संविधान को बनाया है और जिनके लिए यह संविधान बना है -- वे भी वहीं हैं।

पर व्यवहार में संविधान के बुनियादी मूल्यों को नजरंदाज किया जा रहा है।

 यह सिलसिला कोई आज-कल में चालू नहीं हुआ। संविधान बनने के लगभग फ़ौरन बाद ही उसकी मूल भावना के साथ खिलवाड़ चालू हो गया था।

संविधान के पहले आर्टिकल में ही भारत को यूनियन ऑफ स्टेट्स कहा गया है। संविधान निर्माताओं ने साफ कर दिया था कि हमारा लोकतंत्र संधीय ढांचे में काम करेगा। आर्टिकल 131 हो या आर्टिकल 246, सभी इसी संधीय ढांचे को पालन कराने के लिए बनाए गए है।

Attack on Federal Structure

पर संविधान बनने साथ ही इस संधीय ढांचे पर प्रहार चालू हो गए।

1959 में केंद्र सरकार ने लोकमत से चुनी गई नंबूदरिपाद सरकार को बर्खास्त कर दिया। केंद्र में तब काँग्रेस सत्ता में थी। और केरल में वामपंथी सरकार चुनी गई थी।

 याद रखें, जवाहरलाल नेहरू जैसे विख्यात डेमोक्रेट उस समय हमारे प्रधानमंत्री थे।

 तब से जो भी पार्टी सत्ता में आई उसने आर्टिकल 356 का दुरुपयोग करते हुए राज्यों में चुनी हुई विपक्षी सरकारों को बर्खास्त किया।

यह तो केवल एक उदाहरण है।

1975 में जब इमरजेन्सी लगी तो नागरिकों के मौलिक अधिकारों तक को सरकार ने ताक पर ही रख दिया था।

पिछले 70-75 साल के इतिहास को देखते हुए लग रहा है कि हम एक ऐसी रास्ते की ओर बढ़ रहे हैं जहां प्रजा के संवैधानिक अधिकार दिनों-दिन सिमटते जा रहे हैं।

Attack on Freedom of Speech

अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता जैसे मौलिक अधिकारों को लें।

इस मौलिक अधिकार की बात जब भी होती है, मेरी पीढ़ी के लोगों को विख्यात रंगकर्मी और अभिनेता उत्पल दत्त याद आते हैं। कल्लोल नाटक में क्रांति के लिए लोगों को उकसाने के बाद एक आर्टिकल लिखने के जुर्म में उन्हे प्रिवेंटिव डिटेन्शन ऐक्ट की तहत गिरफ्तार कर लिया गया था।

साल था 1965

यह साल इसलिए महत्वपूर्ण है कि जिन दक्षिणपंथी ताकतों को लिबरल पानी पी-पीकर कोस रहे हैं, वे तत्व तब राजनीतिक रूप से इतने ताकतवर नहीं थे।

अभिव्यक्ति की आजादी पर किसी भी हमले का सीधा असर मीडिया पर पड़ता है।

मीडिया पर ही क्यों?

हमारे मुख्य अतिथि, प्रताप भानु मेहता, को देखकर शैक्षणिक क्षेत्र की याद भी आती है। दुनिया भर में एकेडमिक्स को सबसे आजाद और और सबसे लिबरल क्षेत्र माना जाता है। क्योंकि बहस से ही विचार उपजते हैं।

पर अपने यहाँ, अपने विद्वानों को, अपने शिक्षविदों को भी हम विचारधारा की तराजू पर तौलने लगे हैं।

Self-censorship

मैं मीडिया की बात पर वापस आता हूँ।

आजकल न्यूजरूम का माहौल देखने के बाद मुझे 1975 की याद आती है।

प्रि-सेंसरशिप के बाद सरकार ने हम पर सेल्फ सेंसरशिप लगा दी थी। हमें अपनी कॉपी या अखबार के पेज सेंसर से पास नहीं कराने पड़ते थे। खुद अपने आप को सेंसर करना पड़ता था।

आज बिना सेंसरशिप लगाए ही ऐसा माहौल बन गया है कि लाल कृष्ण आडवाणी की याद आती है। उन्होंने आपतकाल में अखबारों के बारे में कहा था – आपको झुकने कहा गया, पर आप रेंगने लगे।

यह तो सरकारों की बात हो गई।

Fourth Estate?

मैं  पत्रकार हूँ। हम अपने आप को लोकतंत्र का चौथा खंबा कहने में गर्व का अनुभव करते हैं। इस सभा में मौजूद ज्यादातर लोग भी मेरी बिरादरी के ही हैं।

मैंने जब जर्नलिज़म में कदम रखे थे तो किसी भी दंगे के समय दंगाइयों की या पीड़ित लोगों का धर्म नहीं बताया जाता था। इसके पीछे भावना यह थी कि दंगे और नहीं भड़कें।

अब हमें दिन-रात टीवी चैनलों पर हिन्दू-मुसलमान करते रहते हैं। एक चैनल तो धार्मिक आधार पर ही चलता है और भड़काऊ सामग्री परोसते रहता है।

धर्म निरपेक्षता और और धार्मिक आजादी ऐसे बुनियादी संवैधानिक मूल्य थे, जिन्हे पालन कराने की जिम्मेदारी हमारी भी उतनी ही है, जितनी सरकार की है या अन्य किसी नागरिक की है। 

इस मौके पर साहिर की पंक्तियाँ याद आती हैं -– वो सुबह कभी तो आएगी

 

(Excerpts from a speech delivered at a lecture series organised by Vikas Samvad, Bhopal, 16th July 2023.) 

 

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