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पत्रकारिता, आपातकाल में और मोदी युग में
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Abu Abraham's iconic cartoon on the Emegency |
Emergency & Press Censorship : a journalist's memoir
NK SINGH
पत्रकारिता का मूल चरित्र
सत्ता विरोधी होता है। यही वजह है कि पत्रकार अक्सर सत्ता से दो-चार हाथ करते
दिखाई देते हैं। पूरी दुनिया में यह होता है। किसी भी अन्याय के खलाफ खड़े होने
वालों में यह कौम सबसे आगे होती है।
अगर पत्रकारिता का मूल
चरित्र सत्ता विरोधी होता है तो दूसरी तरफ सत्ता का मूल स्वभाव निष्पक्ष
पत्रकारिता के खिलाफ होता है। सत्ता में बैठे ज्यादातर लोग अपनी चाटुकारिता पसंद
करते हैं।
मैं किसी खास पार्टी की
बात नहीं कर रहा। पाँच दशक से ज्यादा इस पेशे में गुजार दिए। अपनी आलोचना को लेकर
कोई पार्टी कर टालेरेन्ट होती है, कोई ज्यादा। पर
आलोचना बर्दाश्त करने वाले नेता, अफसर कम ही नजर
आते हैं।
अभी जो लोग सत्ता में
बैठे हैं, वे दिल्ली में हों या
भोपाल में, उनमें आलोचना बर्दाश्त
करने का माद्दा थोड़ा कम ही नजर आता है। ज्यादातर लोग चीजों को ब्लैक या व्हाइट में
देखते हैं। अगर आप सरकार के साथ नहीं हैं, तो इसका मतलब कि आप उसके खिलाफ होंगे। उनके लिए ग्रे एरिया है ही नहीं।
लाइन में रखने की
कोशिश
सरकारें हमेशा मीडिया को लाइन में रखने की कोशिश करती है। पिछले 6-7 साल में यह कोशिश और तेज हुई है। सरकार ने
अपनी विज्ञापन नीति को संपादकीय पॉलिसी से लिंक कर दिया गया है। अगर आप सरकार से
असहमत हैं तो आपके विज्ञापन बंद हो जाएंगे।
तर्क दिया जा सकता है कि
सरकार जिसे चाहे विज्ञापन दे। आखिर सरकार का पैसा है, उसका बजट है।
पर क्या वाकई ये उनका
पैसा है? विज्ञापन पर जो धन खर्च
होता है वह सार्वजनिक धन है, जनता का पैसा है।
एक-एक नागरिक का खून-पसीने से कमाया गया पैसा है, जो हम सबने टैक्स में दिया है। क्या इस पैसे का इस्तेमाल
असहमति की आवाज को कुचलने के लिए किया जा सकता है?
यही वजह है कि मीडिया के
एक तबके को यकीन हो गया है कि सरकार निष्पक्ष पत्रकारिता का गला घोंटने पर आमदा
है। सरकार के खिलाफ अप्रिय तथ्यों को उजागर करने वाले अखबारों, वेब साइट और चैनलों के विज्ञापन बंद कर सरकार
अभिव्यक्ति की आजादी पर रोक लगा रही है।
पर सुकून की बात यह है कि
आज इस मंच से मैं यह बात कह पा रहा हूँ। अभी तो कम से कम हम ये सब लिख सकते हैं और
छाप सकते हैं। सोशल मीडिया पर या अपने वेबसाइट पर, अपने यू ट्यूब चैनल पर सार्वजनिक रूप से इसके बारे में बोल
सकते हैं। हमें इसकी आजादी है।
आपातकाल की याद
पर आपातकाल को याद करें। मैंने वह दौर देखा है। शुरुवात में प्री
सेंसरशिप थी। मैं कोई लेख या खबर लिखता था तो भोपाल में पीआईबी आफिस में सिंघल
साहब चीफ सेंसर थे, उनसे कॉपी पास
करवानी पड़ती थी। वे लाल कलम लेकर उसमें कांट-छाँट करते थे। फिर उसके हर पेज पर
अपनी मोहर लगाते थे और दस्तखत करते थे। चाहें तो पूरा का पूरा लेख ही काट देते थे।
उनकी मोहर के बिना कुछ भी नहीं छप सकता था।
मैं उन दिनों हितवाद में काम करता था। वैसे तो अखबार विद्या चरण शुक्ल का था, जो केंद्र सरकार
में पावरफुल मंत्री थे। सूचना-प्रसारण मंत्रालय भी उन्ही के पास था। पर हमें भी
अपना पेज छपने के पहले सेंसर से पास करना पड़ता था।
कई दफा मैं नाइट ड्यूटी
पर होता था। रात को सिंघल साहब आते थे, और हमें उन्हे पेज प्रूफ दिखाना पड़ता था। कई बार पेज पर लग चुकी खबरों को
काटने के बाद ही वे उसपर अपनी बेशकीमती मोहर लगाते थे। और उनका फैसला अंतिम होता
था।
बाद में प्री सेंसरशिप
खत्म हुई। मैं नई दुनिया में काम करता था। हम सरकार की किसी नीति की सीधी आलोचना
करने से बचते थे। मुझे याद है कई दफा हमने नेहरू जी के या गांधी जी के भाषणों या
किताबों से निकालकर लेख छापते थे ताकि सरकार उसपर आपत्ति नहीं कर सके।
सरकार के आलोचक कई
जर्नलिस्ट जेल पहुँच गए थे। जो बाहर थे उनपर तलवार लटकती रहती थी।
मैंने वह काला दौर देखा
है। इसलिए मेरे जैसे आदमी के गले यह बात नहीं उतरती कि आलोचना करने की आजादी हमसे
छीन ली गई है।
मीडिया का परिदृश्य जरूर
भयावह दिखता है। पत्रकार जिस तरह से खेमों में बँट गए हैं, वैसा आजतक नहीं हुआ था। सरकार के आलोचक पत्रकारों का ख्याल
है कि ज्यादातर मीडिया गोदी मीडिया हो गया है। वह सरकार की गोद में बैठा है। और
विरोधी खेमे का ख्याल है कि लिबरल पत्रकार महज राजनीतिक कारणों से सरकार की आलोचना
करते हैं।
20-सूत्री वाली गोदी
मीडिया
जिसे आज हम गोदी मीडिया
का नाम दे रहे हैं, वह हर दौर में
रहा है। एमर्जेंसी में प्रेस के रोल के बारे में लाल कृष्ण आडवाणी ने लिखा था,
“उन्हे झुकने कहा गया, और वे रेंगने लगे।“
मैं उस जमाने में वर्किंग
जर्नलिस्ट मूवमेंट में ऐक्टिव था। सीहोर में मध्य प्रदेश श्रमजीवी पत्रकार संघ के
वर्किंग कमिटी की मीटिंग हुई। कलेक्टर साहब का फरमान आया कि यूनियन 20-सूत्री कार्यक्रम के पक्ष में प्रस्ताव पारित
करे। मुझे आज 45-46 साल बाद भी आप
को यह बताने में शर्म आ रही है कि प्रस्ताव पारित हुआ।
केवल हम दो लोगों ने उसके
पहले वाक आउट किया। दूसरे सज्जन अब इस दुनिया में नहीं हैं – श्री सूरज पोतदार।
मीटिंग से बाहर निकालने पर हमारे पास
सीआईडी के लोग आए और हम दोनों का नाम और पता नोट कर गए। पत्रकारों की
यूनियन में बीस सूत्री लाने वाले लोग आज भी हमारे बीच हैं और आजादी के नाम पर जमकर
मौजूदा सरकार को कोस रहे हैं।
आज जो दौर हम देख रहे हैं, उंसमें इतना तो है कि यह सब बोलकर जब मैं बाहर निकलूँगा, तो सीआईडी वाले मेरा नाम-पता नोट करने नहीं आएंगे। फ़ैज़ के शब्दों का इस्तेमाल करूँ तो हमारे लब अभी भी आजाद हैं। सरकार के आलोचक मीडिया संस्थानों पर भले ईडी के छापे पड़ रहे हों, पर वे जो चाहें, लिखने के लिए स्वतंत्र हैं।
Excerpts from a speech delivered at a Chhatarpur, Madhya Pradesh, on 12 May 2022
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