NK's Post

Resentment against hike in bus fare mounting in Bhopal

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NK SINGH Though a Govt. directive has frustrated the earlier efforts of the MPSRTC to increase the city bus fares by as much as 300 per cent, the public resent even the 25 per cent hike. It is "totally unjust, uncalled for and arbitrary", this is the consensus that has emerged from an opinion conducted by "Commoner" among a cross-section of politicians, public men, trade union leaders, and last but not least, the common bus travelling public. However, a section of the people held, that an average passenger would not grudge a slight pinche in his pocket provided the MPSRTC toned up its services. But far from being satisfactory, the MPSRTC-run city bus service in the capital is an endless tale of woe. Hours of long waiting, over-crowding people clinging to window panes frequent breakdowns, age-old fleet of buses, unimaginative routes and the attitude of passengers one can be patient only when he is sure to get into the next bus are some of the ills plaguing the city b...

कानूनी राहत : मध्य प्रदेश सरकार ने छोटे आपराधिक मामले वापस लिए

Babulal Gaur with Narendra Modi, Pic credit - PTI

MP Govt withdraws petty criminal cases from courts

NK SINGH

Published in India Today (Hindi) 15 December 1992

मुरैना के ठेला चालक बाबूलाल पिछले पखवाड़ें खुशी  से नाच उठे क्योंकि उनके खिलाफ 12 साल से चल रहा मुकदमा वापस ले लिया गया था। पुलिस ने 1980 में उनके खिलाफ सड़क के किनारे ठेला खड़ा करने के आरोप में मुकदमा दर्ज किया था।

अदालत के चक्कर काट-काटकर वे खासा समय और पैसा बरबाद कर चुके थे। पिछले पखवाड़े अधिकारियों ने उन्हें बताया कि सरकार ने उनके खिलाफ मुकदमा वापस ले लिया है।

बाइस वर्षीय अजय उपाध्याय ठेकेदार हैं। 1987 में जब वे स्कूली छात्र थे तो आरक्षण विरोधी आंदोलन में कूद पड़े। पुलिस ने उन्हें बस के शीशे  तोड़ने के आरोप में गिरफ्तार कर लिया । इस पर अधिकतम दंड दो साल का कारावास था।

वे भी छह साल तक चक्कर काटते रहे। पिछले पखवाड़े अदालत ने उन्हें सूचित किया कि सरकार ने उन्हें माफी दे दी तो उन्होंने कहा, ‘‘मेरी छाती से भारी बोझ उतर गया।‘‘

बाबूलाल और उपाध्याय उन 18,000 लोगों में हैं, जिन्हें उस विशेष योजना का लाभ मिला है, जिसके तहत मध्य प्रदेश  सरकार ने 1987 तक लंबित छोटे आपराधिक मामलों को वापस लेने का फैसला किया है।

लेकिन लाभ पाने वालों में अभियुक्त ही नहीं हैं। राज्य सरकार को उम्मीद है कि इस तरह वह न्यायिक जांच आदि पर होने वाले खर्च में से लगभग एक करोड़ रू. प्रति वर्ष बचा लेगी।

बाबूलाल गौड़ की योजना

यह योजना कानून मंत्री बाबूलाल गौड़ के दिमाग की उपज है, जो खुद वकील रहे हैं। वे कहते हैं, ‘‘वकील होने के नाते मैं समस्या की गंभीरता को जानता हूं।‘‘

इस समय मध्य प्रदेश  की विभिन्न अदालतों में 22 लाख मुकदमे हैं। इनमें पांच लाख छोटे अपराधों से संबंधित हैं, जिन्हें पुलिस द्वारा अनधिकार प्रवेश , मार-पीट,  ट्रैफिक नियमों के उल्लंघन, गैर-कानूनी ढंग से शराब पीने और जुआ खेलने के नाम पर दर्ज कराए गए।

गौड़ कहते हैं, ‘‘ट्रेफिक के अधिकांश अपराधों में अधिकतम जुर्माना 100 रू. है। लेकिन अभियुक्त को अदालत में पेश  करने में सरकार को उससे कई गुना अधिक पैसा खर्च करना पड़ता है‘‘।

इस साल फरवरी में सरकार ने तीन साल के अंदर ऐसे मामलों को वापस लेने का फैसला किया। लेकिन वापसी की प्रक्रिया हाल ही में शुरु  की गई। 12 जिलों में 18,000 से ज्यादा मामले वापस लिए जा चुके हैं।

नवंबर से सरकार ने यह योजना सभी 45 जिलों में लागू कर दी है। अगले साल 26 जनवरी तक 50,000 मामले वापस लेने का लक्ष्य रखा गया है।

आदतन अपराधी, या जिन्हें पहले भी सजा मिल चुकी है, वे इस योजना के दायरे में नहीं आते। केवल भारतीय दंड विधान, आबकारी अधिनियम, मोटर वाहन अधिनियम, पुलिस अधिनियम और सार्वजनिक जुआ अधिनियम की कुछ विशेष धाराओं के अंतर्गत आने वाले छोटे अपराध ही योजना में शामिल हैं।

नौकरशाही की चिंता

मगर यह फैसला आसानी से नहीं हुआ । पुलिस और नौकरशाही में एक ताकतवर लॉबी इसकी खासी आलोचक थी। उसे अपनी सत्ता खत्म होने की चिंता थी

सड़क पर हुई मारपीट के चक्कर में पांच साल तक मुकदमे में फंसे रहे भोपाल के राजेंद्र शर्मा  कहते हैं, ‘‘जब भी किसी को अदालत जाना पड़ता है या समन मिलता है तो उसे पुलिस और क्लर्कों को पैसा देना ही पड़ता हैं‘‘। शर्मा  का मुकदमा भी पिछले पखवाड़े वापस हो गया।

छोटे वकीलों का एक वर्ग भी कमाई से वंचित हुआ है। लेकिन इससे श्योपुर  अदालत में 11 बरस से जुआ खेलने के मामले में फंसे चतरू, जुगल, मलखान, अब्दुल्ला और मुहम्मद जैसे लोगों को जरूर राहत मिली है। वे दोषी पाए जाते तो प्रत्येक पर 100 रू. का जुर्माना होता । लेकिन वे 11 वर्ष तक परेशान रहे। जाहिर है, ऐसे मुकदमे वापस लेकर न्याय ही किया गया हैं।

फिर भी भ्रष्टाचार के अपने तौर-तरीके हैं। नई योजना के तहत भी उपाय निकाल ही लिए गए। 21 वर्षीय संजय दुबे पर भोपाल में 1987 के आरक्षण विरोधी आंदोलन के दौरान बस के शीशे  तोड़ने का आरेाप था।

पिछले पखवाड़े एक पुलिसकर्मी उनके घर ‘अदालत में हाजिर न होने पर‘ गिरफ्तारी का वारंट लेकर पहुंचा। जब वे अदालत पहुंचे तो कर्मचारियों ने कहा कि वे 200 रू. दे दें तो मुकदमा वापस लिया जा सकता है। दुबे ने यही किया और तब उन्हें पता चला कि योजना के तहत उनका मुकदमा वापस हो चुका था।

गौड़ स्वीकार करते हैं कि ऐसे मामले हो सकते हैं लेकिन वे इनकी जांच का वादा करते हैं। साथ ही वे एक चालाक सरकारी कर्मचारी की लोककथा सुनाते हैं जिसे अपनी गलत आदतें सुधारने के लिए समुद्र की लहरें गिनने का अजीबोगरीब काम दे दिया गया था। इसके बावजूद वह जनता पर यह आरोप लगाकर पैसे ऐंठता रहा कि वे लहरों को परेशान कर रहे हैं और “कर्मचारी के जनकार्य में बाधा पहुंचा रहे हैं।

India Today, 15 December 1992

India Today, 15 December 1992


 

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