NK's Post

Resentment against hike in bus fare mounting in Bhopal

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NK SINGH Though a Govt. directive has frustrated the earlier efforts of the MPSRTC to increase the city bus fares by as much as 300 per cent, the public resent even the 25 per cent hike. It is "totally unjust, uncalled for and arbitrary", this is the consensus that has emerged from an opinion conducted by "Commoner" among a cross-section of politicians, public men, trade union leaders, and last but not least, the common bus travelling public. However, a section of the people held, that an average passenger would not grudge a slight pinche in his pocket provided the MPSRTC toned up its services. But far from being satisfactory, the MPSRTC-run city bus service in the capital is an endless tale of woe. Hours of long waiting, over-crowding people clinging to window panes frequent breakdowns, age-old fleet of buses, unimaginative routes and the attitude of passengers one can be patient only when he is sure to get into the next bus are some of the ills plaguing the city b...

बिहार में जातिवाद का नासूर : जातपात पूछे सब कोई

Shambuk Vadh, Credit - Wikimedia Commons

A Ready Reckoner of Caste Politics in Bihar

NK SINGH

दिनमान में प्रकाशित, 13 जून 1971 

जातिवाद का नासूर बिहार की राजनीति में बरसों से पल रहा है. स्थानीय लोग तो इस 'वाद' के इस क़दर आदी हो चुके हैं कि अब उस की तरफ ध्यान भी नहीं जाता.

जातिवाद की जड़ में औद्योगीकरण की लंगड़ी प्रक्रिया, एक शक्तिशाली जन आंदोलन का अभाव, भूमि सुधार के असफल कदम आदि तथ्य छिपे पड़े हैं. सारांश यह कि भारतीय आर्थिक सामाजिक व्यवस्था का अर्ध-सामंती स्वरूप इस रोग की जड़ में है.

दूसरी तरफ नौकरियाँ एवं शैक्षणिक सुविधाएँ इत्यादि प्राप्त करने में एवं कुछ अन्य छोटी मोटी आर्थिक माँगों की पूर्ति में जाति सभाओ द्वारा अदा की गयी भूमिका ने एक साधारण आदमी को अपनी जाति विशेष के प्रति बहुत हद तक मोहग्रस्त बना दिया है.

आर्थिक परिस्थिति का सामाजिक राजनैतिक परिस्थिति पर सीधा प्रभाव पड़ता है. अतः वर्तमान राजनीतिज्ञों ने जातिवाद को सत्ता पर कब्जा करने तथा सामाजिक, राजनैतिक एवं आर्थिक फ़ायदे प्राप्त करने का मोहरा बना लिया है.

प्रमुख जातियाँ

बिहारी हिन्दुओं को जातिगत आधार पर मोटे तौर पर तीन भागों में बाँटा जा सकता है -- तथाकथित सवर्ण, शुद्र एवं अस्पृश्य जातियाँ.

सवर्ण या उच्च कही जाने वाली जातियाँ बिहार की कुल जनसंख्या का 13.22 प्रतिशत हैं. तथाकथित शुद्र या पिछड़ी जातियाँ संख्या में भरपूर है -- लगभग 52.16 प्रतिशत. तथाकथित अस्पृश्य या हरिजन जनसंख्या का 14.07 प्रतिशत हैं. उच्च कही जाने वाली जातियों में चार प्रमुख हैं: ब्राह्मण, भूमिहार, राजपूत तथा कायस्थ.

अर्ध-सामंती ढाँचा

बिहार का अर्ध-सामंती ढाँचा बहुत हद तक भूमिहारों और राजपूतों पर टिका है. आँकड़ों की बाबत मालूम होता है कि राज्य के 78.6 प्रतिशत भूमिसेठ, भूमिहार, राजपूत है-- वैसे इस में ब्राह्मणों का भी एक अति नगण्य हिस्सा शामिल है.

आर्थिक रूप से सुदृढ़ होने की वजह से राजपूतों और भूमिहारों का राजनीतिक सितारा अभी तक बुलंदी के साथ चमक रहा था. राज्य में ये ही दोनों परंपरागत सत्ताधारी जातियाँ थीं.

पर दूसरी तरफ़ सामाजिक, आर्थिक एवं राजनैतिक क्षेत्रों में प्रतियोगिता के चलते इन दो उच्च जातियों को एक दूसरे का जानी दुश्मन भी माना जाता था. 1967 के बाद हुए राजनीतिक उतार चढ़ाव में सत्ता पर उन का एकाधिकार खत्म हो गया और उस के बाद से बने 7 मुख्य मंत्रियों में 4 शूद्र एवं 1 हरिजन था.

बिहार की सब से शिक्षित जाति

कायस्थों को बिहार में 'बाबू' का पर्याय वाची समझा जाता था. नौकरी पेशा होने की वजह से यह जाति शहरों में केंद्रित है, पढ़ाई लिखाई के काम से उन का अधिक वास्ता रहा है और वे बिहार की सब से शिक्षित जातियों में से एक है.

राजनीतिक रूप से भी उन की स्थिति काफ़ी अच्छी रही है तथा अविभाजित कांग्रेस के भीतर सत्ता के लिए लड़ रहे राजपूत और भूमिहार गुटों के बीच उन्होंने कभी इस पक्ष तो कभी उस पक्ष में जा कर अपनी एक अच्छी-खासी महत्त्वपूर्ण स्थिति बनाये रखी.

गरीब बिहारी बाह्मण

तथाकथित उच्च जातियों में भी सब से उच्चतम समझी जाने के बावजूद ब्राह्मणों की बिहार -- खासकर उत्तरी बिहार के संदर्भ में एक खास स्थिति रही है सामाजिक दृष्टि कोण से एक उच्च जाति होने के बावजूद आर्थिक रूप से वे बहुत ही गरीब, पिछड़े तथा शोषित हैं.

वैसे इसके अपवाद स्वरूप राज्य में कुछ घनी ब्राह्मण परिवार भी है मसलन दरभंगा राज, जो कि देश के इने-गिने घनी सामंती परिवारों में से एक था. पर ब्राह्मणों का बहुसंख्यक हिस्सा काफ़ी गरीब और पिछड़ा हुआ है. आर्थिक पिछड़ेपन के चलते राजनीतिक क्षितिज पर भी उन का कोई खास महत्व नही था.

निपुण पेशेवर जातियाँ

तथाकथित शूद्र या पिछड़ी जातियों में कुछ निपुण पेशेवर जातियाँ -- मसलन धोबी, नाई, कुम्हार, तेलीऔर अन्य कुछ जातियाँ, जैसे वैश्य (बनियाँ), धानुक कुरमी, कोयरी, यादव आदि आती हैं. महत्त्वपूर्ण बात यह है कि इन में से अधिकतर जातियाँ किसी न किसी रूप में, किसी पेशे विशेष से संबंधित हैं.

ये जातियाँ आर्थिक रूप से उतनी पिछड़ी नहीं जितना उन्हें समझा जाता है. सूखे एवं अकाल के बावजूद बिहार के गांवों में थोड़ी बहुत तरक़्क़ी आयी है और इस तरक्क़ी का सब से बड़ा फ़ायदा तथाकथित शूद्रों को -- खासकर यादव एवं कुरमी को मिला है.

धनी पर पिछड़े

वैश्यों (बनियाँ) को ही लें. निःसंदेह यह व्यापारी जाति काफ़ी घनी है, परंतु इसे भी बिहार में पिछड़ी जातियों के अंर्तगत ही गिना जाता है।

ये तथाकथित पिछड़ी जातियाँ, पिछड़ी इस अर्थ में हैं कि आर्थिक रूप से स्वावलंबी होने के बावजूद समाज में उन्हें तथाकथित सवर्णों के साथ बराबरी का दर्जा नहीं प्रदान किया जाता है. आर्थिक तरक्की के बावजूद ये 'नव-धनिक' जातियाँ पुरानी सामंती जातियों ( राजपूत और भूमिहार) वाली शान--शौकत और रुतबा प्राप्त करने में असमर्थ रही हैं.

पर आर्थिक उन्नति के साथ-साथ अन्य क्षेत्रों में भी 'शूद्रों' की आकांक्षाएँ -अभिलाषाएँ बढ़ी हैं एवं पिछले कुछ वर्षों से समाज में उच्चतर स्थान पाने की दृष्टि से इन्होंने अपनी बड़ संख्या ( 52.16) प्रतिशत का फ़ायदा उठाते हुए राजनीति पर हावी होने की जी-तोड़ कोशिश शुरू कर दी है.

पिछड़ी तो वास्तव में तथाकथित अस्पृश्य जातियाँ -- भारत सरकार की नज़र में अनुसूचित जातियाँ -- हैं. डोम, मुसहर, चमार, भुइयाँ आदि इसी श्रेणी में आते हैं.

सरकार द्वारा प्रदत्त तमाम सुविधाओं के बावजूद -- जो कि सागर में बूंद के समान हैं -- ये जातियाँ न तो आर्थिक रूप से कोई उल्लेखनीय तरक्की कर सकी हैं और न ही समाज द्वारा उन्हें दिये जाने वाले अमानवीय व्यवहार में कोई सुधार हुआ है.

इन तथ्यों को ध्यान में रखते हुए कोई आश्चर्य नहीं कि राजनीतिक क्षितिज पर भी हरिजनों का सितारा मंद है.

जातिवाद का अखाड़ा

बिहार में जातिवाद का इतिहास भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस का इतिहास है. सब से बड़ा राजनीतिक दल होने के कारण अविभाजित कांग्रेस जातिवाद का सब से बड़ा अखाड़ा रहा है.

सत्तालोलुप राजनीतिज्ञ अपने-अपने जातिगत संबंधों को बलि का बकरा बना कर कांग्रेस के माध्यम से जाति के लिए छीना-झपटी करते रहते थे. वास्तव में बिहार प्रदेश कांग्रेस के पास 'जातिवाद' को छोड़ कर कोई वाद था ही नहीं.

बिहार प्रांत की स्थापना के समय से ही राज्य में जातिवाद के विकराल दानव का प्रभाव महसूस किया जाता रहा है.

यह कहना अतिशय नहीं होगा कि उस समय भी तथा कथित बड़े-बड़े समाज-सुधारक तथा राष्ट्रवादी वास्तव में 'जाति सुधारक' या जातिवादी थे. इन में से बहुतों को अभी भी आदर और श्रद्धा की दृष्टि से देखा जाता है, मसलन सर गणेश दत्त एवं सर सच्चिदानंद सिन्हा.

सारे मंत्री भूमिहार-राजपूत

1937 के आम चुनावों ने राज्य में आर्थिक द्रष्टि से संपन्न राजपूतो और भूमिहारों को राजनीतिक क्षेत्र में भी प्रतियोगिता के कगार पर ला खड़ा कर दिया. तब से 1967 के अविच्छिन्न कांग्रेसी शासन तक सत्ता पर उन्हीं दोनों जातियों का कब्जा रहा है.

ये आपस में प्रतियोगितावश लड़ते-झगड़ते थे, पर कोई भी अन्य जाति इस बीच सत्ता पर कब्जा करने का साहस न कर पायी. बिहार 1937 में बने पहले कांग्रेसी मंत्रिमंडल के सभी हिंदू सदस्य भूमिहार राजपूत थे. 

'भूमिहार शिरोमणि' डॉ. श्री कृष्ण सिंह, जिन्हें बिहार केसरी की संज्ञा दी जाती है, और अखिल क्षत्रिय महासभा के आदरणीय संरक्षकों में से एक 'बिहार-विभूति' श्री अनुग्रह नारायण सिंह की जोड़ी भारतीय राजनीति में काफ़ी प्रसिद्ध रही है.

उन की 'दुश्मन-दोस्ती' काफ़ी दिलचस्प एवं निराली थी. नेतृत्व के लिए झगड़े के बावजूद इन दोनों सज्जनों में काफ़ी सद्भाव था और एक 'अलिखित समझौते' के अंतर्गत अनुग्रह बाबू के नेतृत्व में चलने वाले राजपूत गुट ने श्री बाबू के नेतृत्व में चलने वाले भूमिहार गुट को कभी भी खुले आम चुनौती नहीं दी. 

सत्ता का संघर्ष 

यह समझौता 1957 में टूटा, जब कि उस साल हुए कांग्रेस विधायक दल के नेता-पद के चुनाव में लगातार तीन सत्रों तक मुख्यमंत्री रहने वाले श्री बाबू के नेतृत्व को उनके मंत्रिमंडल के वरिष्टतम सदस्य अनुग्रह बाबू ने चुनौती दी. 

राजपूतों और भूमिहारों के बीच सत्ता के लिए यह पहला खुला संघर्ष था. 

जाति सभाएं 

अपनी कुछ आर्थिक माँगों की पूर्ति हेतु विभिन्न जाति वालों ने अगल-अलग जाति समाएँ बना रखी हैं.  मसलन भूमिहार- ब्राह्मण महासभा, क्षत्रिय महासभा, मैथिल- ब्राह्मण सम्मेलन, कुशवाहा क्षत्रिय (कुरमी) सम्मेलन, यादव महासभा, कायस्थ अधिवेशन, दलित वर्ग संघ इत्यादि. 

अविभाजित कांग्रेस के पुराने नेताओं में से प्रायः सभी अपनी-अपनी जाति सभाओं से किसी न किसी रूप में संबंधित थे. 

कायस्थ राजनीति 

कायस्थ गुट ने राजपूतों और भूमिहारों के बीच हुए सत्ता-संघर्ष में काफी महत्वपूर्ण भूमिका अदा की है. इस गुट की निष्ठा सुविधानुसार कभी इस जाति कभी उस में बदलती रही है. 

शुरू-शुरू में कायस्थों को भूमिहारों का विश्वासपात्र माना जाता था. बिहार के एक भूतपूर्व मुख्यमंत्री, श्री कृष्ण वल्लभ सहाय -- एक कायस्थ नेता -- को तत्कालीन भूमिहार मुख्यमंत्री श्रीकृष्ण सिंह का विश्वास प्राप्त था. 

पर 1957 में जब राजपूतों ने भूमिहारों के एकछत्र राज्य को चुनौती दी तो श्री सहाय ने भी पैंतरा बदला वह सदल-बल राजपूत गुट की ओर खिंच गये. 

एक भी ब्राह्मण नहीं 

इस सारी लड़ाई के बीच 'शूद्र' और हरिजन तो दूर, ब्राह्मण भी कहीं नजर नहीं आते थे. यह तथ्य उन के आर्थिक पिछड़ेपन के संदर्भ में खास आश्चर्यजनक नहीं लगता. 

1938 तंक बिहार प्रदेश कांग्रेस कमेटी की कार्यकारिणी में एक भी ब्राह्मण नहीं था. बिहार का पहला ब्राह्मण मुख्यमंत्री 1962 में सत्ता में आया, पर राजपूत-भूमिहार कायस्थ त्रिगुट के सामने वह भी ज्यादा दिन टिक न पाया. 

भूमिहार-राजपूत मिलाप 

1969 में हुए ऐतिहासिक कांग्रेस विभाजन के बाद अधिकांश भूमिहार संगठन कांग्रेस के पक्ष में चले गये हैं. 

छोटे साहब के नाम से विख्यात श्री सत्येंद्र नारायण सिंह -- जिन्हें राजपूतों की नेतागिरी अपने पूज्य पिता, श्री अनुग्रह नारायण सिंह से विरासत में प्राप्त हुई है –- ने भी इंडिकेट की बजाय सिंडीकेट को ही पसंद किया. सत्येंद्र बाबू का साथ दिया एक दूसरे राजपूत नेता, श्री रामसुभग सिंह ने, जो कि भंग लोकसभा में विरोधी दलों के नेता थे. 

इस तरह बिहार की राजनीति के दो ध्रुवों -- भूमिहार और राजपूत -- का मिलाप पहली बार संभव हो सका. संगठन कांग्रेस के झंडे के नीचे अब ये दोनों गुट कंधे से कंधा मिला कर काम कर रहे हैं. 

संगठन कांग्रेस को अपना समर्थन प्रदान करने वाली तीसरी जाति कायस्थ है. बिहार कायस्थ नेता के रूप में विख्यात भूतपूर्व मुख्यमंत्री श्री कृष्ण वल्लभ सहाय ने संगठन कांग्रेस का दामन थामा है. 

ऊंची जाति की पार्टी 

पर एक तरफ जहाँ संगठन कांग्रेस को तीन सवर्ण जातियों -- राजपूत, भूमिहार और कायस्थ -- के एक बड़े हिस्से का समर्थन प्राप्त हुआ है, वहीं पर इसी तथ्य ने पार्टी को 'ऊँची जाति वालों की पार्टी के रूप में पेश किया है. 

और फलस्वरूप 'शूद्र' तथा हरिजन संगठन कांग्रेस से विमुख हो गये हैं. ब्राह्मण तो खैर एक भी पहले से ही इस दल में नहीं. 

1971 के चुनावों में बिहार से संगठन कांग्रेस के विजयी तीनों उम्मीदवार भूमिहार राजपूत थे. तथा कथित शूद्र एवं हरिजनों--जो कि कुल जन संख्या का 66.23 प्रतिशत हैं--के अलगाव में ही संगठन कांग्रेस की भारी हार का कारण ढूंढ़ा जा सकता है. 

बाम्हन, औरत, तुरुक, चमारा

मतलब यह नहीं कि सारे के सारे तथाकथित सवर्ण, अपने परंपरागत नेताओं के पीछे आँख मूंद कर 'इंदिरा हटाओ लोकतंत्र बचाओ,' के नारे को कार्यान्वित करने में जुट गये थे. 

नई कांग्रेस ने भी बहुत हद तक इन जातियों को अपनी ओर मोड़ने में सफलता पाई. किसी लोक कवि की यह पंक्ति यहाँ बहुत लोकप्रिय है: 

बाम्हन, औरत, तुरुक, चमारा,

ये सब देखो कांग्रेस 'आरा' 

अर्थात् ब्राह्मण, औरत, मुसलमान और हरिजन, विशेषतया चर्मकार, इंदिरा कांग्रेस -- जिसे अंग्रेज़ी में कांग्रेस 'आर' कहा जाता है -- की ओर आकर्षित हुए. 

नए नेता 

राजपूत-भूमिहार-कायस्थ त्रिगुट से भी इंडिकेट के नेता हैं, पर वे परंपरागत नेताओं से थोड़ा कम प्रसिद्ध एवं अपेक्षाकृत नये हैं. पर मध्यावधि चुनावों में इन्हीं नये नेताओं ने इंदिरा जी की तरफ़ से लड़ कर संगठन कांग्रेस के दिग्गजों को पछाड़ दिया. 

उदाहरणस्वरूप, प्रदेश संगठन कांग्रेस की एक बड़ी तोप, भूमिहार नेता महेश प्रसाद सिंह को, उन्हीं के खास अड्डे मुजफ्फरपुर में, उन्हीं के भूतपूर्व सलाहकार एवं जाति-भाई नवल किशोर सिंह ने सत्तारूढ़ कांग्रेस के टिकट पर लड़ कर पछाड़ दिया. 

राजपूतों में, भूतपूर्व केंद्रीय मंत्री और अब मध्यप्रदेश के राज्यपाल, श्री सत्य नारायण सिन्हा, को तो इंदिरा जी की प्रगतिशील नीतियाँ काफी पहले ही रास आ गयी थीं. 

ब्राह्मण आए 

पर सत्तारूढ़ कांग्रेस को भरपूर समर्थन मिला ब्राह्मणों से जिन्हों ने और किसी दल को तो शायद ही पसंद किया. नयी लोक सभा में बिहार से 11 ब्राह्मण सदस्य निर्वाचित हुए हैं, जिनमें से 10 सत्तारूढ़ कांग्रेस में हैं. 

राज्य के प्रसिद्ध ब्राह्मण नेता, भूतपूर्व मुख्यमंत्री विनोदा नंद झा -- जो गैर कांग्रेसवाद की बयार में बहकर लोक तांत्रिक कांग्रेस में चले गये थे -- पुन: इंदिरा कांग्रेस में शामिल हो गये हैं. इंदिरा जी के समर्थक कुछ अन्य ब्राह्मण नेताओं में श्री अनंत प्रसाद शर्मा एवं श्री ललित नारायण मिश्र के नाम उल्लेखनीय हैं और अब इन नेताओं की बदौलत राज्य में ब्राह्मणों का एक अच्छा खासा तगड़ा गुट है. 

ब्राह्मण गुट ने हाल में ही तथाकथित पिछड़ी जाति वालों से हाथ मिला कर अपनी स्थिति काफ़ी मज़बूत कर ली है. 

पिछड़ी जाति का उदय 

हालांकि कांग्रेस के इतर भी पिछड़ी जातियों के बहुत से महत्वपूर्ण नेता है, पर सत्तारूढ़ कांग्रेस के श्री रामलखन सिंह यादव के महत्व से इंकार नहीं किया जा सकता. अन्य 'पिछड़े' कांग्रेसी नेताओं में भूतपूर्व मुख्यमंत्री, श्री दारोगा प्रसाद राय एवं केंद्रीय मंत्री, श्री बलिराम भगत उल्लेखनीय हैं. 

इन नेताओं का पिछड़ी जातियों में प्रभाव इस बात से स्पष्ट हो जाता है कि गत चुनाव में बिहार से विजयी कुल 13 पिछड़ी जातियों के सदस्यों में 10 नयी कांग्रेस के टिकट पर लड़े थे. 

पर पिछड़ी जातियों में आपस में मेल नहीं. यहाँ तक कि एक ही जाति के भीतर मेल नहीं. एक ही जाति के कुछ नेता कांग्रसी हैं तो कुछ गैर कांग्रेसी और जो कांग्रेस में हैं, उन में भी आपस में मेल नहीं. कारण सत्ता का मोह. 

उदाहरण के लिए पिछड़ी जातियों में से यादवों को ले. सत्तारूढ़ कांग्रेस के श्री रामलखन सिंह यादव, इस जाति के परंपरागत नेता हैं. पर श्री यादव 1967 की कांग्रेस विरोधी बयार के शिकार हो गये और प्रथम गैर-कांग्रेसी सरकार द्वारा नियुक्त किये गए अय्यर जांच आयोग ने भी उन्हें भ्रष्टाचार का दोषी साबित कर उन के राजनीतिक जीवन पर लांछना लगा दी. 

मौके का फायदा उठा कर श्री दारोगा राय नये यादव नेता के रूप में उभरे. उन की श्री यादव से -- जैसा कि सहज ही अंदाज लगाया जा सकता है -- नहीं पटी. 'राय गुट' को इस में जगजीवन राम का समर्थन प्राप्त था जब कि 'यादव गुट' को ब्राह्मणों का. 

ब्राह्मण-शूद्र मोर्चा 

फ़िलहाल श्री रामलखन सिंह का गुट काफ़ी तगड़ा है. हाल ही में कांग्रेस विधायक दल के नेतृत्व पद के लिए श्री दारोगा राय के इस्तीफ़े के बाद जो चुनाव हुए उन में भी श्री यादव का ही उम्मीदवार जीता जब कि श्री राय एवं जगजीवन राम का उम्मीदवार हार गया. ब्राह्मणों ने और राजपूत-भूमिहारों ने भी 'यादव-गुट' का साथ दिया. 

यह ब्राह्मण-शूद्र मोर्चा दोनों जातियों के संयुक्त लाभ का रहा है. इन जातियों को बिहार में 53 में से 25 स्थान गत मध्यावधि चुनावों में प्राप्त हुए, जिन से 20 सत्तारूढ़ कांग्रेस के थे. 

इस का श्रेय शायद जगजीवन राम को ही जायेगा कि सत्तारूढ़ कांग्रेस ने अनुसूचित जातियों के लिए सुरक्षित कुल सात स्थानों में से पाँच प्राप्त किये. 

ऊंची जाति वाले कम्युनिस्ट 

दोनों कांग्रेस पार्टियाँ तो जात-पाँत के इस बदबूदार कीचड़ में -- जिसे कुछ राजनीति कहने की उदारता बरतते हैं – डूबी ही हैं, गैर-कांग्रेसी पार्टियाँ भी इस में सीने तक धँसी हैं. 

भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी को भी बिहार में ऊँची जाति वालों की पार्टी होने का गौरव प्राप्त है. कांग्रेस से दुत्कारे एवं कांग्रेस के भविष्य से निराश दोनों तरह के नेताओं की साम्यवादी दल में भरमार है. 

सामंतवादी भूमिहारों का एक अच्छा खासा हिस्सा दक्षिणपथी साम्यवादी दल को वोट दिया करता है. 1967 में बिहार में बने पहले संयुक्त मंत्रिमंडल के दोनों कम्युनिस्ट सदस्य भूमिहार थे. वर्तमान लोक- सभा में भी बिहार के 5 कम्युनिस्ट सदस्यों में से 2 सवर्ण हैं. 

जमींदारों का जनसंघ  

राष्ट्रीयता, हिन्दुत्व, भारतीयकरण आदि की बड़ी-बड़ी बातें करने वाला जनसंघ भी कुछ कम नहीं. इसे मारवाड़ी-बनियाँ-जमींदार पार्टी इस अर्थ में कहा जाता है कि व्यापारी वर्ग एवं राजपूत जमींदार इस दल को वास्तविक शक्ति प्रदान करते हैं. 

मारवाड़ी सक्रिय राजनीति में आना पसंद नहीं करते अतः संघ के अधिकांश नेता कायस्थ और राजपूत हैं. 

हाल में बिहार में जिन विक्षुब्ध जनसंघियों ने 'राष्ट्रीय जनसंघ' की स्थापना की, उन्होंने भी प्रदेश जनसंघ के अध्यक्ष श्री ठाकुर प्रसाद पर 'कायस्थवाद' का आरोप लगाया था. 

समाजवादी पिछड़ावाद 

ग़ैर कांग्रेसी पार्टियों में, संयुक्त समाजवादी पार्टी ही जातिवाद का सब से बड़ा शिकार है. इस की स्थापना के समय से ही पार्टी के भीतर 'ऊँची जाति बनाम नीची जाति’ का संघर्ष चलता आ रहा है. 

वैसे संसपा में पिछड़ी जाति वालों का बोल-बाला है. होना भी चाहिए. स्व. डा. लोहिया ने ही सिद्धांततः पिछड़ी जाति वालों को 'विशेष सुविधाएँ' -- मसलन, नौकरियों, संसद्, विधान सभा में उन के लिए 60% स्थान सुरक्षित रखना -- देना स्वीकार किया था. 

पर उन की मृत्यु के पश्चात् पिछड़े वर्ग की आर्थिक उन्नति एवं कतिपय पिछड़े नेताओं की बदौलत एक नये वाद – पिछड़ावाद -- का उदय हुआ है. 

जहाँ पर यह 'वाद' कुछ पिछड़ी जातियों को संसोपा के क़रीब लाया, वहीं पर इस ने दल को तथाकथित सवर्णों से दूर ला पटका. 

1971 में संसपा एक तरफ तो तथाकथित सवर्णों से अलग-अलग पड़ ही चुकी थी, दूसरी तरफ तथाकथित शूद्र एवं अस्पृश्य जातियाँ -- जिन का एक बड़ा हिस्सा संसपा की रीढ़ थी -- भी सत्तारूढ़ कांग्रेस की ओर चली गयीं. और यहीं पर दल की भारी पराजय का कारण ढूंढ़ा जा सकता है. 

संसपा के ही आक्रामक 'पिछडावाद' ने शोषित दल को जन्म दिया, जो यकीन करता है कि भारत में समाजवाद की स्थापना वर्ग संघर्ष नहीं वरन वर्ण संघर्ष के जरिये हो सकती है. पिछड़ी जातियों के शोषित दल के नेता जयदेव प्रसाद जो अपने आप को बिहार का लेनिन' कहते हैं, यदाकदा सवर्णों के आमूल विनाश का फतवा देते रहते हैं. 

सत्ता में हिस्सा 

हाल के वर्षों में राज्य में जाति बाद के खिलाफ़ जो आवाज उठी है, वह बड़ी अर्थपूर्ण है. जब तक ऊंची जाति के नेतागण कांग्रेस के माध्यम से सत्ता में रहे, वातावरण शांत था. जातिवाद था, पर जातिवाद नही था. 

'जातिवादी भेड़िये के आ धमकने' के खतरे का ऐलान तब हुआ, जब पिछड़ी जाति वालों में चेतना जगी (आर्थिक उन्नति साथ-साथ ) और उन्हों ने सत्ता में हिस्सा बॅटाने के लिए प्रयत्न शुरू किये. 

यादवों की ताकत 

फिलहाल राज्य के राजनैतिक पटल पर ऊँची जाति वालों का परंपरागत प्रभाव लगभग खत्म हो चुका है. सब से बड़ी ताकत ब्राह्मण-यादव गुट है. 

यादवों की ताकत तो इस कदर बढ़ी है कि बड़ा से बड़ा सवर्ण नेता उन की कृपा से दृष्टि के लिए लालायित रहा करता है. गत चुनाव में नयी कांग्रेस के टिकट पर 6 यादवों ने चुनाव लड़ा और सब के सब जीत गये. 

इस परिवर्तनशील विकास का वस्तुगत कारण पिछड़ी जाति वालों की आर्थिक उन्नति है, और विषयगत कारण संसपा की जाति संबंधी नीतियाँ हैं. 

बाघ और बकरी एक घाट 

इस 'पिछड़ावाद' के राज्य की राजनीति में एक और बड़ा परिवर्तन किया. भूमिहार-राजपूत एकता. 

'बैकवर्ड' राज में आज भूमिहार बाघ और राजपूत बकरी (यदि राजपूत बंधु नाराज हों तो इसे यूँ पढ़े: भूमिहार बकरी और राजपूत बाघ) एक घाट पानी पी रहे हैं. 

पर वास्तव में यह राजपूत-भूमिहार एकता रेल की दो समानांतर पटरियों के मिल जाने के समान है; रेल की पटरियाँ मिल गयीं तो आगे प्रगति का रास्ता अवरुद्ध हो जाता है. भूमिहारों और राजपूतों की प्रगति का मार्ग भी अवरुद्ध हो चुका है. 

पर इस जातिगत राजनीति में सब से बड़ा घाटा उठाना पड़ा है. मुसहर, डोम, चमार आदि तथाकथित अस्पृश्य जातियों को. इन पिछड़ी, गरीब और शोषित जातियों की स्थिति में कोई परिवर्तन नहीं हुआ है.

वैसे वोट तो दिया है उन्हों ने इस बार सत्तारूढ़ कांग्रेस को (मार्फ़त बाबू जगजीवन राम) पर अन्य सभी दल भी उन के हितैषी होने का दम भरते हैं. वाबजूद इस के, इन जातियों का कोई भी नेता (जो एक-दो हैं) शायद ही अनुसूचित जातियों के लिए सुरक्षित निर्वाचन क्षेत्रों के अतिरिक्त अन्य क्षेत्रों से लड़ सका, जीतने की बात तो दूर रही.

Dinman 13 June 1971 

Postscript: Those interested in further understanding Bihar’s caste politics, may like read The Republic of Bihar, a brilliant book by Arvind Naryan Das (1949-2000). It is a must-read for those who want to study Bihar. The book, specially, provides an excellent analysis of Bihar's caste politics.

The book (Penguin,1992) unfortunately seems to be out of print at the moment. But an admirer has put a copy on that wonderful place called World Wide Web: https://kupdf.net/download/the-republic-of-bihar_5afbd4b9e2b6f5bd037adad9_pdf

Dinman 13 June 1971




 

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