NK's Post

Bail for Union Carbide chief challenged

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NK SINGH Bhopal: A local lawyer has moved the court seeking cancellation of the absolute bail granted to Mr. Warren Ander son, chairman of the Union Carbide Corporation, whose Bhopal pesticide plant killed over 2,000 persons last December. Mr. Anderson, who was arrested here in a dramatic manner on December 7 on several charges including the non-bailable Section 304 IPC (culpable homicide not amounting to murder), was released in an even more dramatic manner and later secretly whisked away to Delhi in a state aircraft. The local lawyer, Mr. Quamerud-din Quamer, has contended in his petition to the district and sessions judge of Bhopal, Mr. V. S. Yadav, that the police had neither authority nor jurisdiction to release an accused involved in a heinous crime of mass slaughter. If Mr. Quamer's petition succeeds, it may lead to several complications, including diplomatic problems. The United States Government had not taken kindly to the arrest of the head of one of its most powerful mul...

आजाद भारत में पत्रकारिता के 5 वाटरशेड : संकट में निष्पक्ष पत्रकारिता

 

Credit: Kirtish Bhatt, BBC

Five Watersheds in Indian Journalism

NK SINGH 

मैंने आधी सदी पहले पत्रकारिता के क्षेत्र में कदम रखा था। इस पेशे में आने के लिए इतना उतावला हो रहा था कि एमए की पढ़ाई परीक्षा के पहले ही छोड़ दी।

और इस तरह मैं एक ड्रॉप आउट बन गया, अपने घरवालों की मर्जी के खिलाफ।  

जब आप युवा होते हैं तो आपकी आँखों में सपने तैर रहे होते हैं। मेरी आँखों में भी थे। सोचा कि  मेरे इस एक कदम से दुनिया बदल जाएगी। जब हम 20-21 साल के होते हैं, तो इसी तरह सोचते हैं।

तीन गलतफहमियाँ

इस पेशे में आते वक्त मुझे तीन गलतफहमियाँ थीं।

पहली, कि पत्रकारिता बदलाव का, क्रांति का, दूत बन सकता है। दूसरी, कि पत्रकार खुद बड़े साफ-सुथरे और ईमानदार होते होंगे। आखिर वे भ्रष्टाचार के खिलाफ इतना लिखते रहते हैं। मेरी तीसरी गलतफहमी यह थी कि पत्रकारिता एक बौद्धिक पेशा है, पत्रकार विद्वान और पढ़ने-लिखने वाले लोग होते हैं।

इस पेशे में घुसते के साथ ही, ये सारी गलतफहमियाँ दूर हो गईं।

मैं कैरियर की शुरुआत में इंदौर की नई दुनिया नाम के अखबार में काम करता था, जो 1970 के दशक में शायद हिन्दी का सबसे बेहतरीन अखबार था।

एक रिपोर्टिंग के लिए मैं रतलाम के आलोट कस्बे में गया था। पास के गाँव कनाड़िया में दलितों पर हमले की घटना हुई थी, उसके बारे में लिखने के मकसद से।

रेस्ट हाउस में सामान रखकर मैंने अखबार के स्थानीय संवाददाता से मिलने गया। पूछा तो किसी ने बताया, “दूकान पर होंगे।“

“काहे की दूकान?”

पता चला कि हमारे संवाददाता टेलर मास्टर थे।

उस इलाके का दूसरा बड़ा अखबार तब स्वदेश था। उसके संवाददाता के बारे में मालूम किया। मालूम पड़ा वे नाई का काम करते थे।

यह तो कस्बाई पत्रकारों की बात हुई। अपने अखबार के दफ्तर में भी मुझे कई ऐसे पत्रकार मिलते रहे, जिन्होंने शायद वर्षों से कोई किताब छुई तक नहीं थी।

हम मीडिया को अक्सर फोर्थ एस्टेट कहकर उसपर गर्व करते हैं। काहे का फोर्थ एस्टेट? वह तो वास्तव में व्यवस्था का ही हिस्सा है। मीडिया तो कंट्रोल कौन करता है? कॉर्पोरेट घराने। क्या आप उम्मीद कर सकते हैं कि उनके द्वारा चलाए जा रहे अखबार या चैनल व्यवस्था-विरोधी होंगे?

पत्रकार ईमानदार होते हैं, मेरी यह गलतफ़हमी टूटने में थोड़ा वक्त लगा। न मैं उसके किस्से आप को सुनाऊँगा, न कोई उदाहरण दूंगा। वैसे मेरे पास ढेरों किस्से भी हैं और ढेरों उदाहरण भी। इस बारे मैं प्रेस क्लब की इस सभा में बैठे लोग मुझसे ज्यादा जानते हैं।

इंडिया टूडे में हमारे पुराने बॉस अरूण पुरी कहते थे, “पत्रकारिता एक बिजनेस है, पर यह एक ऐसा बिजनेस है जिसकी अंतरात्मा है।“ अंतरात्मा के बिना पत्रकारिता महज एक बिजनेस बन कर रह जाती है।

पत्रकारिता का चाल, चरित्र और चेहरा

पत्रकारिता में ये सारे परिवर्तन कोई एक दिन में नहीं आए हैं।

आजाद भारत की पत्रकारिता के इतिहास में 5 वाटरशेड घटनाएं हुई, जिन्होंने इस पेशे का चाल, चरित्र और चेहरा बदल दिया।

पहला वाटरशेड 1975 की इमरजेन्सी थी। उसके साथ प्रेस पर सेंसरशिप लागू की गई। उस काले अध्याय से हम सभी परिचित हैं। जैसा कि लाल कृष्ण आडवाणी जी ने लिखा था, “उन्हे झुकने कहा गया, और वे रेंगने लगे।“

दूसरा वाटरशेड लगभग 25 साल बाद आया -- 24 घंटे के खबरिया चैनल। उन्होंने न्यूज की परिभाषा ही बदल दी। न्यूज और मनोरंजन के बीच की दीवार टूट गई।

इस खबरिया चैनलों को देखकर कई लोगों की यह धारणा और पुख्ता होती है कि पत्रकारिता एक बौद्धिक पेशा नहीं है। शायद हम कुशल कारीगरों की श्रेणी में आते हैं।

जॉर्ज बर्नार्ड शॉ ने एक दफा कहा था, “ऐसे दिखता है कि अखबारों को यह तमीज़ नहीं है कि वे एक साइकिल-दुर्घटना और सभ्यता के विनाश में फर्क कर सकें।“

लगभग यही समय था कि पेज 3 कल्चर चालू हुआ और उसके साथ आया पत्रकारिता का तीसरा वाटरशेड --पेड न्यूज। मीडिया पर इसके प्रभाव से हम सभी परिचित हैं। पर इसके दूरगामी परिणाम पूरे समाज को प्रभावित कर सकते हैं। पेड न्यूज हमारे प्रजातन्त्र को खत्म कर सकता है।

अगर केवल पैसे वालों की खबरें केवल छपती रहें तो इलेक्शन पर उसका क्या असर होगा? अब तो बात यहाँ तक पहुँच गई है कि इलेक्शन कमिशन हर चुनाव में पेड न्यूज पर नजर रखने के लिए एक्स्पर्ट्स को लगाता है।

चौथा वाटरशेड 2008 में नीरा राडिया टेप साबित हुए। आप सबने शायद उसे सुना होगा। उस टेप ने जर्नलिज़म में बड़े-बड़ों को नंगा किया, कई बुत ढहाए। वैसे तो फ़ैज़ साहब ने इस संदर्भ में नहीं कहा था, पर उनकी याद आती है:

“सब बुत उठवाए जाएँगे..

सब ताज उछाले जाएँगे

सब तख़्त गिराए जाएँगे” 

दवाब में निष्पक्ष पत्रकारिता

अब मैं आता हूँ पाँचवे वाटरशेड पर। पिछले 6-7 साल में मीडिया पर दोतरफा दवाब बनाने कि कोशिश की गई है।

पहला दवाब मीडिया घरानों पर और उनके मालिकों पर डाला गया है। सरकार की विज्ञापन नीति को संपादकीय पॉलिसी से लिंक कर दिया गया है। अगर आप सरकार से असहमत हैं तो आपके विज्ञापन बंद हो जाएंगे।

तर्क दिया जा सकता है कि सरकार जिसे चाहे विज्ञापन दे। आखिर सरकार का पैसा है, उसका बजट है।

पर क्या वाकई ये उनका पैसा है? विज्ञापन पर जो धन खर्च होता है वह सार्वजनिक धन है, जनता का पैसा। एक-एक नागरिक का खून-पसीने से कमाया गया पैसा, जो हम सबने टैक्स मैं दिया है।

क्या इस पैसे का इस्तेमाल असहमति के आवाज जो कुचलने के लिए किया जा सकता है?

पत्रकारिता पर दूसरा दवाब है खबर इकट्ठा करने के तंत्र को सुंकुचित करके। कल हमने इस मंच पर प्रेस क्लब ऑफ इंडिया के अध्यक्ष श्री उमाकांत लखेरा को आमंत्रित किया था। उनका प्रेस क्लब पत्रकारों के अधिकारों को लेकर लंबे समय से लड़ रहा है।  

कोरोना की आड़ में केवल संसद में ही नहीं, कई विधान सभाओं में भी पत्रकारों को रिपोर्टिंग से रोक जा रहा है। दिल्ली में प्रेस इंफोरमशन ब्युरो पत्रकारों के अधिमान्यता कार्ड के रिनुवल में बाधा पैदा कर रहा है।

कई सरकारें अपने सूचना तंत्र को आउट्सोर्स कर रही हैं। पत्रकारों के सरकारी दफ्तरों में प्रवेश पर और अफसरों से बात करने को लेकर कई तरह की पाबंदी लगाई जा रही है। खबरों के श्रोत को सुखाने की कोशिश की जा रही है।

सरकार मैन्स्ट्रीम मीडिया के मार्फत अपनी बात कहने की वजाय सोशल मीडिया पर कहती है, जहां उससे सवाल जवाब नहीं किए जा सकते हैं।

एक मुहिम चल रही है कि पत्रकारों को अप्रासंगिक बना दिया जाए।

भगौने में पत्रकारिता

आपने मेढक को उबालने वाला किस्सा तो सुना ही होगा।

मेढक को एक भगौने में पानी डालकर आंच पर चढ़ा दिया जाता है। मेढक उस भगौने में मस्त तैरते रहते हैं। धीरे धीरे पानी का टेम्परचर बढ़ता है। शुरू में मेढक को अच्छा लगता है, बाद में वह बर्दाश्त करता है, पर थोड़ी देर में जब पानी उबलने लगता है, बार वह भगौने से निकलने के लिए उछल कूद करने लगता है।

आज पत्रकारिता उसी भगौने में है।

Edited excerpts from a speech delivered at Central Press Club, Bhopal, on 22 January 2022.

For video link of the programme visit: https://www.facebook.com/DigvijayaSinghOfficial

nksexpress@gmail.com

 


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