NK's Post

Resentment against hike in bus fare mounting in Bhopal

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NK SINGH Though a Govt. directive has frustrated the earlier efforts of the MPSRTC to increase the city bus fares by as much as 300 per cent, the public resent even the 25 per cent hike. It is "totally unjust, uncalled for and arbitrary", this is the consensus that has emerged from an opinion conducted by "Commoner" among a cross-section of politicians, public men, trade union leaders, and last but not least, the common bus travelling public. However, a section of the people held, that an average passenger would not grudge a slight pinche in his pocket provided the MPSRTC toned up its services. But far from being satisfactory, the MPSRTC-run city bus service in the capital is an endless tale of woe. Hours of long waiting, over-crowding people clinging to window panes frequent breakdowns, age-old fleet of buses, unimaginative routes and the attitude of passengers one can be patient only when he is sure to get into the next bus are some of the ills plaguing the city b...

खेमों में बँटा मीडिया: पक्षधरता को प्रतिबद्धता समझने की भूल


Courtesy: cartoonsbyirfan.in

Why Media has become so partisan?

NK SINGH

हमारे समय में पक्षधरता को प्रतिबद्धता समझा जा रहा है. दोनों बुरी तरह गड्ड मड्ड हो गए हैं. उनके बीच की लकीर लगभग मिट गयी है.

उससे भी ज्यादा खतरनाक यह है कि कई मीडिया संस्थान और पत्रकार अपनी पक्षधरता को एक तमगे के रूप में पहन रहे हैं.

इनमें से कई आज के समय के नामी-गिरामी पत्रकार हैं, मीडिया आइकॉन हैं, सेलेब्रिटी हैं. वे बड़े गर्व के साथ राजनीतिक पार्टियों के, विचारधाराओं के झंडे उठा कर चल रहे हैं.

प्रतिबद्धता बनाम पक्षधरता की इस डिबेट से एक बड़ा सवाल उठ खड़ा होता है. क्या पत्रकार अपनी निष्पक्षता खो बैठे हैं? क्या इसकी वजह से पत्रकारिता अपनी सबसे बड़ा धरोहर खो बैठी है? वह पूँजी है -- हमारी क्रेडिबिलिटी, हमारी साख, हमारी विश्वसनीयता.

यह क्यों और कैसे हुआ?

गुजरात के दंगों सबको अभी भी याद होंगे. 2002 के दंगे. वे आजाद भारत के इतिहास के सबसे भयानक दंगे थे. तीन महीनों तक गुजरात एक दावानल की भांति धधकता रहा. आजादी के बाद यह शायद सबसे लम्बे समय तक चलने वाला सांप्रदायिक दंगा था.

सरकारी आंकड़ों के मुताबिक १०४४ लोग मारे गए, २२३ लापता हो गए, जिनकी लाशे भी नहीं मिली. ढाई हज़ार लोग घायल हुए. दंगाईयों ने हजारों घर और दूकानें लूटी और जलाई. दस हज़ार से भी ज्यादा लोग बेघर हुए.

हालत यह हो गयी कि तत्कालीन प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी ने गुजरात के तत्कालीन मुख्यमंत्री नरेंद्र मोदी को राजधर्म पालन करने की याद दिलाई.

पर ऐसे भयानक दंगों में भी मीडिया को अपना काम करने में कोई खास तकलीफ नहीं आई. १९९२ में बाबरी मस्जिद गिराए जाने के बाद जो देशव्यापी दंगे हुए थे, उसमें भी मीडिया के लोग कमोबेश सुरक्षित थे.

किसी भी दंगे की कवरेज जंग के मैदान में जाने जैसा खतरनाक काम है. रिपोर्टर और फोटोग्राफर फिल्ड में जान हथेली पर रखकर काम करते हैं.

सांप्रदायिक दंगों में ये खतरे और भी बढ़ जाते हैं. आपका ऐसी उन्मादी भीड़ से साबिका पड़ सकता है जो आपको पत्रकार की बजाय हिन्दू या मुसलमान के रूप में देखना चाहे और दंगाग्रस्त क्षेत्रों में घुसने के पहले आप का पेंट उतरवा कर आपकी पहचान करना चाहें.

न हिन्दू, न मुसलमान, केवल पत्रकार 

मुझे १९९२ के भोपाल के दंगों की याद आती है. पत्रकारों के एक ग्रुप के साथ मैं बजरिया क्षेत्र में घूम रहा था रहा था, जो बुरी तरह दंगों का शिकार हुआ था। हमारी आंखों के सामने ही घरों में और धार्मिक स्थलों में आग लगायी जा रही थी.

हम चार लोग थे. सुविधा की दृष्टि से हम सब स्कूटरों पर सवार थे. हमारे साथ दो फोटोग्राफर थे. एक तो भोपाल के सुपरिचित प्रेस फोटोग्राफर आरसी साहू थे. दूसरे फोटो जर्नलिस्ट मुसलमान थे. अपनी विशिष्ट किस्म की दाढ़ी की वजह से दूर से ही मुसलमान नजर भी आते थे.

एक जगह हमने देखा कि एक मस्जिद जल रही थी. फोटोग्राफर उसका फोटो खींचने आगे बढे. उसी समय नंगी तलवारें और लाठी-भाले लहराता एक हुजूम हमपर हमला करने आगे बढ़ा.

सड़क की दोनों तरफ मकानों के छज्जों पर भी भारी भीड़ थी, जिनमें महिलाएं भी थीं, सभी पत्थरों से लैस. उन्होंने भी हमें ललकारा और भागने कहा.

पर फोटोग्राफर, वो भी प्रेस के फोटोग्राफर कहाँ मानने वाले हैं! वे अपना काम करते रहे। फोटो शूट जारी रहा।

तबतक हम अपना काम आसानी से कर रहे थे. हमारी समझ में नहीं आया कि एकदम से क्या हो गया. लोग हमारे खिलाफ क्यों हो गए?

तलवारों से लैस भीड़ ने फोटोग्राफरों को घेर लिया। हमारी जान पर आ पड़ी थी। हम चौतरफा घिर चुके थे।

तभी भीड़ में से किसी ने साहूजी को पहचाना. उनमें से कुछ चिल्लाए, “अपने लोग हैं, जाने दो.” हम जल्दी से अपने स्कूटरों पर सवार होकर वहां से निकल लिए.

अगर साहूजी साथ नहीं होते तो पता नहीं हम मुर्दाघर में होते या अस्पताल में. मुश्किल से बचे.

बाद में पता चला कि दंगाईयों की आपत्ति इस बात को लेकर नहीं थी कि पत्रकार फोटो क्यों खीच रहे हैं.

उन्हें इस बात पर रंज था कि उग्र हिन्दुओं की भीड़ में एक मुसलमान बेख़ौफ़ घुस आया है. वे उसे पत्रकार के रूप में नहीं बल्कि मुसलमान के रूप में देख रहे थे.

वे मित्र आज भी फोटोग्राफी करते हैं.

और मुझे फक्र है कि वे आज भी दाढ़ी रखते हैं.

साम्प्रदायिक दंगों के दौरान पत्रकारों पर आम तौर पर हमले नहीं होते हैं. कारण कि लोग उन्हें निष्पक्ष भूमिका में देखते हैं --- फायर ब्रिगेड की तरह या एम्बुलेंस की तरह.

पत्रकारों को जो दिक्कतें आती हैं वे फायर ब्रिगेड वालों को भी आती है और एम्बुलेंस को भी आती है.

पत्रकारिता के फील्ड में काम करने वाले जानते हैं कि एहतियात के तौर पर यह कोशिश जरूर की जाती है कि मुस्लिम बाहुल्य दंगाग्रस्त क्षेत्रों में उसी धर्म के रिपोर्टर/फोटोग्राफर भेजे जाएँ. हिन्दू बाहुल्य दंगाग्रस्त क्षेत्रों में दूसरे समुदाय के स्टाफ को भेजने से परहेज़ किया जाता है.

गुजरात दंगों की कवरेज

इन दिक्कतों के बावजूद पत्रकार अपना काम अच्छी तरह करने में कामयाब होते हैं. गुजरात के दंगों की कवरेज को याद करें. टेलीविज़न के रिपोर्टर हों या प्रिंट के, उन्होंने अपना काम बखूबी किया.

तब तक प्राइवेट टीवी चैनलों को भारत में आये हुए आठ साल हो चुके थे. राजदीप सरदेसाई और बरखा दत्त जैसे टीवी रिपोर्टरों की वजह से उन दंगों की विभीषिका सीधे हमारे ड्राइंग रूमों तक पहुंची.

सरकार उस समय भी अपने काम में लगी थी. स्टार न्यूज़, आजतक, सीएनएन और जी न्यूज़ गुजरात में ब्लैक आउट कर दिए गए थे. तब सैटेलाईट टीवी नहीं आया था. केबल आपरेटरों पर अंकुश लगाना किसी भी सरकार के लिए बहुत आसान है.

ऐसा नहीं कि गुजरात की कवरेज में सारे अखबार निष्पक्ष थे. एडिटर्स गिल्ड ऑफ़ इंडिया ने अपनी रिपोर्ट में कहा कि गुजरात समाचार और सन्देश जैसे बड़े अख़बार एकतरफा रिपोर्टिंग कर रहे थे. कई भाषाई अख़बारों ने मुस्लिमों पर हुए जुल्मों को कम करके छापा.  

पर इसके बावजूद, जहाँ तक मेरी जानकारी है, गुजरात के दंगों में भी याद नहीं आता कि भीड़ ने पत्रकारों पर महज इस वजह हमला किया हो कि वे किसी घटना की फोटो खींच रहे थे या वे किसी ख़ास मीडिया हाउस का बिल्ला टांगे थे।

बदला परिदृश्य

यह परिदृश्य आज पूरी तरह बदल गया है.

दिल्ली में 2020 के दंगों की कवरेज के दौरान पत्रकारों पर कई हमले हुए. जेके न्यूज़ के आकाश नापा को गोली मारी गयी. एनडी टीवी के दो पत्रकार बुरी तरह जखमी होकर अस्पताल में दाखिल हुए। वे एक जलते हुए दरगाह को शूट कर रहे थे। दंगाईयों की राय में एनडी टीवी उनका विरोधी चैनल था।  

अगर आप एनडी टीवी के लिए काम कर रहे हैं तो पब्लिक मानती है कि आप एक ख़ास विचारधारा के हैं. अगर आप रिपब्लिक टीवी या जी न्यूज़ के लिए रिपोर्टिंग कर रहे हैं तो मानकर चला जाता है कि आप उस विचारधारा के विरोधी होंगे.

टीवी रिपोर्टरों के माइक पर चैनलों के आईडी या लोगो लगे होते हैं, जिसे वे कहीं भी घुसने के लिए इस्तेमाल करते हैं और बड़ी फक्र के साथ लेकर घूमते हैं.

दिल्ली के दंगों के दौरान देखने में आया कि टीवी रिपोर्टरों को इस माइक आईडी को छुपाना पड़ रहा था।

पहले दंगों की रिपोर्टिंग करते वक्त केवल अपना धर्म छुपाना पड़ता था. अब जिस मीडिया संस्थान के लिए आप काम कर रहे हैं, उसकी पहचान छुपानी पड़ती है.

यह कोई रातों-रात का डेवलपमेंट नहीं है.

'गोदी मीडिया' और 'टुकड़े-टुकड़े गैंग'

2014 के बाद पत्रकार दो खेमों में बंट गए हैं। एक तरफ है कथित गोदी मीडिया, दूसरी तरफ है कथित टुकड़े-टुकड़े गैंग।

एनडी टीवी के रविश कुमार ने मोदी समर्थकों को गोदी मीडिया का नाम दिया है. रविश कुमार और उनके खेमे के लोगों राय में मोदी का समर्थन करने वाले पत्रकार और मीडिया हाउस सरकार की गोद में बैठे हैं.

दूसरे खेमे में लिबरल विचारधारा के लोग हैं. माना जाता है कि ये पत्रकार हिंदुत्व की विचारधारा के विरोधी हैं. इसलिए विरोधियों की नजर में वे तथाकथित टुकड़े-टुकड़े गैंग के मेम्बर हैं.

हालत यह हो गयी है कि लोग मानकर चलते हैं, पाठक मानकर चलते हैं, दर्शक मानकर चलते हैं कि आप या तो इस तरफ होंगे या उस तरफ.

हम एक ऐसे कालखंड में प्रवेश कर गए हैं जहाँ लगता है कि निष्पक्ष होने की, विचारधारा से ऊपर उठकर पत्रकारिता करने की गुंजाईश बहुत कम बची है.

सोशल मीडिया पर दोनों खेमे एक-दूसरे के खून के इस तरह प्यासे हो रहे हैं मानों कौरव-पांडव युद्ध में जुटे हों.

एक उदाहरण। टीवी पत्रकार दीपक चौरसिया दिल्ली में शाहीन बाग़ के धरने की रिपोर्टिंग करने गए थे। वहां पूरी भीड़ के सामने उनपर सरे आम हमला किया गया और रिपोर्टिंग करने से रोका गया. उनके साथ ऐसा सलूक इसलिए किया गया कि वे एक खास विचारधारा के समर्थक माने जाते हैं.

चौरसिया पर हमले ने मुझे जितना हैरान नहीं किया उससे ज्यादा कई पत्रकारों की प्रतिक्रियाओं ने किया. कई ने सोशल मीडिया पर कहा कि वे पत्रकार हैं ही नहीं. वे तो सरकार के भोंपू हैं. और इसलिए उनपर हमला हुआ.

प्रतिबद्धता और पक्षधरता में फर्क

सहिष्णुता की बात करने वाले खुद घोर असहिष्णु हो रहे हैं. यह हालत क्यों बनी है? क्यों प्रतिबद्धता और पक्षधरता के बीच की लकीर धुंधली होती जा रही है?

इसकी एक वजह मुझे नजर आती है कि पत्रकारिता के आयाम और उसके बारे में खुद पत्रकारों की समझ पिछले एक दशक में काफी बदल गयी है.

आज टीवी मीडिया की मुख्य धारा बन गया है. और इस मीडियम की मांग है कि वहां आकर्षक चेहरे हों, जो वाकपटु हों, हाज़िर जवाब हों.

हिंदुस्तान में इसके अलावा एक और गुण की दरकार पड़ती है – एंकर के गले में ताकत हो और वे गरज कर, बदतमीजी के साथ किसी को भी खामोश करने की कूवत रखते हों.

इस डेवलपमेंट ने सेलेब्रिटी पत्रकारों को जन्म दिया है.

वह जमाना चला गया जब पत्रकार परदे के पीछे, अनाम रहकर काम करते थे. एस मुलगांवकर जैसे मूर्धन्य संपादक अपने लेखों में, अपने कालम में पूरा नाम भी नहीं लिखते थे. कालम के अंत में उनके केवल लघु हस्ताक्षर होते थे – एसएम.

गुमनामी का जमाना गया. अब पत्रकार अपनी मार्केटिंग खुद करते हैं.

सेलेब्रिटी पत्रकार

पहले पन्ने पर जिस संपादक का फोटो के साथ लेख नहीं छपे, उसे संपादक नहीं माना जाता. हम अपना डंका खुद बजाने में माहिर हो गए हैं.

और जो जितनी जोर से डंका पीट सकता है, वह उतना ही बड़ा पत्रकार है.

इनमें से ज्यादातर सेलेब्रिटी पत्रकार – भले वे किसी भी खेमे के हों – ख़बरों में अपनी विचारधारा घुसाने की कोशिश करते रहते हैं.

उनके प्रभाव की वजह से अधिकतर टीवी चैनलों के समाचार बुलेटिन में अब केवल ख़बरें नहीं मिलती. वहां ख़बरों को अब आइडियोलॉजी की चासनी में डुबो कर पेश किया जाता है.

अख़बारों में यही काम अब शीर्षकों के जरिये किया जा रहा है. शीर्षकों में कमेंट किये जा रहे हैं. और टेलीग्राफ जैसे अख़बार इसके लिए वाहवाही भी लूट रहे हैं.

पत्रकारिता का एक शाश्वत नियम है --- ख़बर की पवित्रता के साथ कोई छेड़छाड़ नहीं किया जाना चाहिए. उन्हें जस कर तस पाठकों तक, दर्शकों तक पहुँचाना हमारा काम है.

हर पत्रकार की अपनी आइडियोलॉजी होगी. पर उस आइडियोलॉजी से ख़बरों की पवित्रता प्रभावित नहीं होनी चाहिए. पर आज ऐसा ही हो रहा है. अख़बारों में थोडा कम हो रहा है, टीवी में ज्यादा हो रहा है, पर हो रहा है.

और वह पत्रकारिता की सबसे बड़ी धरोहर पर डाका डाल रहा है. यह धरोहर है हमारी विश्वसनीयता. और जिस दिन मीडिया की क्रेडिबिलिटी ख़त्म हो जायगी, उसके पास बचेगा क्या?

Excerpts from lecture delivered at Bhuvan Bhushan Deolia Memorial Lecture, Bhopal, 2020







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