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कैसा होगा कोविड के बाद का मीडिया
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Courtesy Deccan Herald |
एनके सिंह
संकट आज नहीं तो कल ख़त्म होगा। हर स्याह रात के बाद एक सुबह आती है। किसने सोचा था कि दूसरे विश्वयुद्ध से तबाह युरोप इतनी जल्दी खड़ा हो जाएगा या ऐटम बम से नेस्त-नाबूद जापान दुनिया की आर्थिक धुरी बन जाएगा।
कोरोना संकट ने मीडिया को एक सीख दी है – अपने सारे अंडों को एक ही टोकरी में नहीं रखें। अखबार, टीवी और डिजिटल मीडिया को एक-दूसरे का पूरक बनाना पड़ेगा। उन्हे कन्वर्जन्स की तरफ और तेजी से जाना पड़ेगा।
कोरोना काल ने साबित किया है कि पिछले एक दशक में तैयार नए पाठक वर्ग को अखबारों की विश्वसनीयता और टीवी का आँखों देखा हाल अपने स्मार्ट फोन या टैबलेट पर चाहिए।
कोरोना से अस्तित्व का संकट
मीडिया के लिए कोरोना की मार बुरे वक्त पर आई है। गूगल और फ़ेसबुक सरीखी कंपनियों की वजह से उनकी कमाई पहले ही कम हो गई थी। कोरोना ने अस्तित्व का संकट खड़ा कर दिया है।
मसलन, अमेरिका में 2008 के मुकाबले पत्रकारों की तादाद आधी रह गई है। न्यूयॉर्क टाइम्स के मुताबिक कोरोना के बाद अमेरिकन मीडिया संस्थानों ने 36,000 कर्मचारियों की छटनी की है।
दुनिया के कई बड़े अख़बार अपनी परछाईं भर रह गए हैं – दुबले-पतले, कृषकाय। कई बंद हो चुके हैं। प्रतिष्ठित वेब साइट कटोरा लेकर पाठकों के सामने खड़े हैं। विज्ञापनों से घटती आय से परेशान न्यूज चैनल छँटनी और तनखा में कटौती कर रहे हैं। मीडिया के सामने तात्कालिक चुनौती इस आर्थिक विपदा से निबटने की है।
डिजिटल थाली में प्रिंट पकवान
विडंबना यह है कि कोरोना काल में ख़बरों की भूख भी बढ़ी और पढ़ने वालों की तादाद भी। लोगों ने प्रिंट मीडिया की गुणवत्ता पर भरोसा किया, पर उसे डिजिटल की थाली में खाना शुरू कर दिया। मार्केट रिसर्च संस्था नेल्सन के मुताबिक कोरोना के बाद भारत में सोशल मीडिया का इस्तेमाल 50 गुना बढ़ गया है।
कोरोना ने दीर्घकालीन चुनौतियाँ भी खड़ी की हैं। सबसे बड़ी चुनौती है, विश्वसनीयता को कायम रखने की। डिजिटल दुनिया में अफ़वाहें ख़बर के रूप में घुसती हैं और ख़बर अफ़वाह के रूप में। हालत इतनी ख़राब है कि वहाँ फ़ेक न्यूज़ की पहचान के लिए ट्रेनिंग देनी पड़ रही है।
वर्ल्ड इकनॉमिक फोरम के मुताबिक कोरोना काल में पारंपरिक मीडिया पर लोगों का भरोसा थोड़ा बढ़ा है -- 65 से बढ़कर 69 प्रतिशत। पर लगभग दो-तिहाई लोगों का मानना है कि “झूठी खबरें वायरस की तरह फैल रही हैं।“
चैनल निष्पक्ष नहीं
विश्वसनीयता को अंदरूनी खतरा भी है। प्रिंट पर यह संकट कम है, टीवी पर ज़्यादा। पाठक मानते हैं कि ज़्यादातर चैनल निष्पक्ष नहीं। उनके स्टार ऐंकर तो अपने पूर्वाग्रह और पक्षपात के लिए और भी बदनाम हैं। राजनीतिक चाशनी में डूबी हेड्लाइन मीडिया की साख कम करती हैं।
इस चुनौती से उबरने के बाद रास्ता बदलाव की तरफ जाएगा। हर संकट के बाद बदलाव आता है। इमरजेन्सी के बाद भारत के अख़बार इन्वेस्टिगेटिव जर्नलिज़म की तरफ़ मुड़े और पहले से ज़्यादा पठनीय हुए।
बिजनेस सलाहकार कंपनी केपीएमजी के मुताबिक 2030 तक भारत में 100 करोड़ डिजिटल उपभोक्ता होंगे। सबको भविष्य वहीं दिख रहा है।
पर गूगल पत्रकारिता से काम नहीं चलेगा, क्योंकि पाठक ख़ुद गूगल के पंडित हैं। प्रिंट मीडिया को अपने डिजिटल अवतार की गुणवत्ता बढ़ानी होगीऔर सस्ते, सनसनीख़ेज़ वेब पोर्टलों से अलग दिखना होगा। वरना सोशल मीडिया उन्हें खा जाएगा और डकार भी नहीं लेगा।
सबसे बढ़कर, मीडिया को अपनी साख क़ायम रखने के लिए ख़बरों और टिप्पणी में विभाजन रेखा को गहरा करना होगा, ख़बरों में वैचारिक पूर्वाग्रह की घुसपैठ सख़्ती से रोकनी होगी। इसके बाद मिलेगा एक नया, ज्यादा स्वस्थ मीडिया।
Dainik Bhaskar 13 August 2020
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