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Dainik Bhaskar 3 November 2018 |
How smaller parties affect poll outcome in MP
NK
SINGH
इस चुनाव में एक और नई
पार्टी ने मैदान में उतरने का ऐलान किया है. आध्यात्मिक गुरु पंडोखर सरकार की
सांझी विरासत पार्टी “हिन्दू-विरोधी शिवराज सरकार” से चिढ़कर ५० जगहों से उम्मीदवार
उतारेगी.
उनके भक्तों में भाजपा
और कांग्रेस दोनों के नेता शामिल हैं. कई मंत्री और विधायक उनके दरबार में हाजरी
बजाते हैं.
पचास में से कितनी सीटें
वे जीतेंगे, इसका तो पता नहीं. पर जीतने वाली पार्टी के वोट काट कर उसे हरा सकते
है.
इस तरह की दर्ज़नों खुदरा
पार्टियाँ हर चुनाव में मैदान में उतरती हैं. सत्ता के खेल में कांग्रेस और भाजपा
को छोड़कर और किसी भी पार्टी की मध्यप्रदेश में कभी कोई अहमियत नहीं रही है.
पर इस दफा ऐसी चिल्लर
पार्टियों को लेकर भाजपा और कांग्रेस दोनों में चिंता हैं. हाल के वर्षों में
भाजपा और कांग्रेस के बीच वोटों का फासला भले ही बढ़ा हो, पर यहाँ डेढ़-दो परसेंट के
मार्जिन पर हार-जीत कर फैसला होता रहा है.
इसलिए सत्ता के दोनों
दावेदारों में फ़िक्र उन सीटों को लेकर है, जहाँ हार-जीत का मार्जिन कम रहा है. ३५
से ४५ सीटों पर दो परसेंट से भी कम फर्क से खेल हो जाता है. इनमें से ज्यादातर
सीटें त्रिकोणीय संघर्ष वाली रही हैं.
नोटा का भी कम असर नहीं.
पिछले इलेक्शन में २६ सीटें ऐसी थी जहाँ हार-जीत कर अंतर नोटा से भी कम था. नोटा प्रदेश
में भाजपा, कांग्रेस और बसपा के बाद चौथे नंबर की पार्टी बन कर उभरी है! २०१३ में उसे
६.४ लाख वोट मिले थे.
दो नवम्बर से नॉमिनेशन
भरना चालू हो रहा है. आसार हैं कि कांग्रेस अकेले चुनाव लड़ेगी. देखें, पिछली बार
१४ परसेंट वोट ले जाने वाली ये छोटी पार्टियाँ इस बार कैसे इलेक्शन को प्रभावित
करेंगी.
बसपा: इसका एक परमानेंट वोट बैंक है. २०१३ में उसे
६.२९ परसेंट वोट और चार सीटें मिलीं. पर अगर कांग्रेस उसके साथ मिलकर चुनाव लडती
तो कांग्रेस की ४७ सीटें बढ़ सकती थी. इस बार भी गठबंधन नहीं होने का सीधा असर
कांग्रेस पर होगा. यूपी बॉर्डर से सटी ५० सीटों पर भाजपा-विरोधी वोट बंटने का खतरा
है.
सपाक्स: सबसे नयी पार्टी है, पर सड़क पर उतर कर
एससी-एसटी एक्ट का विरोध करने के कारण सबसे ज्यादा चर्चा में है. आरक्षण-विरोधी २१
संगठनों के साथ मिलकर चुनाव लड़ने की तैय्यारी है. रूलिंग पार्टी को सबसे ज्यादा
खतरा इसीसे है क्योंकि इसके समर्थक अब तक भाजपा के कट्टर समर्थकों में रहे हैं.
गोंडवाना: आदिवासी हितों के लिए महाकौशल और विन्ध्य
में सक्रिय संगठन ने २००३ में पहली दफा तीन सीटें जीती थी. पिछली बार उसका वोट
घटकर एक प्रतिशत रह गया क्योंकि भाजपा का प्रभाव आदिवासी इलाकों में बढ़ा है. कांग्रेस
से गठबंधन की बात चली थी, पर बात बनी नहीं. समझौता होता तो कम मार्जिन से हारी
सीटों पर कांग्रेस को फायदा था.
जयस: छह साल से पश्चिमी मध्यप्रदेश में काम कर
रहा जय आदिवासी युवाशक्ति संगठन पहली दफा चुनाव मैदान में उतरेगा. इसके नेता हैं एम्स
की नौकरी छोड़ आदिवासी इलाकों में काम कर रहे युवा आदिवासी डॉक्टर हीरालाल अलावा.
जयस कांग्रेस के साथ मिलकर चुनाव लड़ना चाहता है. अगर समझौता हो गया तो दोनों को
फायदा है.
समाजवादी पार्टी: उत्तर प्रदेश से सटे इलाकों में २००३ में
सात सीटें जीतने वाली पार्टी अब ढलान पर है. इसने भी कांग्रेस के साथ गठबंधन की
कोशिश की थी, पर बातचीत टूट गयी. चिढ कर समाजवादी पार्टी ने उन सारे लोगों को टिकट
का ऑफर दिया है जिन्हें कांग्रेस से टिकट नहीं मिलता है. जाहिर है, उसके सारे
उम्मीदवार भाजपा-विरोधी वोट में सेंध लगायेंगे.
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