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India Today (Hindi) 31 May 1996 |
Atal Bihari Vajpayee : Lonely at the Top
NK SINGH
कमरे का यह नजारा भारत के नए प्रधानमंत्री की एक ऐसे नेता के रूप में झलक देता है जिसकी पार्टी अपने से इतर समझदारी का अस्तित्व स्वीकार नहीं करती।
71 वर्षीय वाजपेयी सार्वजनिक जीवन के पांच दशकों में आम सहमति की राजनीति के उपासक रहे हैं।
हिंदुत्ववादियों की पाषाण-हृदय बिरादरी में वे अकेले नरम दिल नेता हैं। वे किसी के मर्म पर वार नहीं कर सकते और यही उनकी सबसे बड़ी कमजोरी है।
विडंबना देखिए कि यही उनकी सबसे बड़ी खूबी भी है।
वाजपेयी से 40 वर्ष से परिचित सुप्रीम कोर्ट के वकील
एन.एम. घटाटे कहते हैं, ‘‘जहां आलोचना करने की जरूरत होती वहां वे कोई कसर नहीं छोड़ते लेकिन उनकी आलोचना से कोई आहत भी नहीं होता।‘‘
आरएसएस के पूर्णकालिक कार्यकर्ता वाजपेयी के पिता ग्वालियर के एक विद्यालय में अध्यापक थे।
चालीस के दशक से लेकर अब तक वाजपेयी ने वाकई बड़ा लंबा सफर तय किया है जब वे अपनी हिंदू विरासत के बारे में जोशीली कविताएं लिखा करते थे और लखनऊ में पाञचजन्य, राष्ट्रधर्म और स्वदेश जैसे इस संगठन के हिंदी प्रकाशनों में पत्रकार के रूप में काम करते थे।
अच्छी सांसारिक चीजों से लगाव
अपने उदारवादी विचारों के कारण ही नहीं, बल्कि अपनी जीवन शैली और अच्छी सांसारिक चीजों के प्रति लगाव के चलते भी वाजपेयी संघ पृष्ठभूमि के अन्य भाजपा नेताओं से अलग दिखते हैं।
मूलतः उत्तर प्रदेश के बटेश्वर निवासी ये कान्यकुब्ज ब्राह्मण निजी जीवन में कोई बड़े धार्मिक व्यक्ति नहीं है ।
व्यक्तिगत स्तर पर वे कैसे प्रधानमंत्री होंगे?
वाजपेयी का रिकाॅर्ड खुद ही शायद इसका जवाब है।
1942 में भारत छोड़ो आंदोलन के दौरान उन्हें कांगे्रसी कार्यकर्ता के रूप में जेल की सजा हुई थी। और इमरजेंसी के दौरान इंदिरा गांधी की सरकार ने भी उन्हें नजरबंद किया था।
वाजपेयी ने, जिन्हें जवाहरलाल नेहरू ने कभी भारत का भावी प्रधानमंत्री कहा था, 1977-79 में जनता सरकार के विदेश मंत्री के रूप में काफी ख्याति अर्जित की थी।
उदारवादी विचार
उनकी पार्टी के बहुत से लोग उनके उदारवादी विचारों को पसंद नहीं करते । वे हमेशा आरएसएस के शक के दायरे में रहेंगे, जो भाजपा पर नियंत्रण रखता है।
जिस पार्टी को धार्मिक कट्टरता और असहिष्णुता के लिए जाना जाता है — खासकर बाबरी मस्जिद विध्वंस के बाद से — ऐसे उदारवादी विचारों का गलत मतलब लगाया जा सकता है, और अक्सर हुआ भी यही है।
जनसंघ के पूर्व अध्यक्ष
बलराज मधोक कहते हैं, ‘‘वाजपेयी का प्रधानमंत्री बनना देश के लिए विनाशकारी है।‘‘
आरएसएस के कार्यकर्ता 1984 में पार्टी की पराजय का दोष वाजपेयी को देते हैं। तब उनकी अध्यक्षता में पार्टी को लोकसभा में केवल दो सीटें मिली थीं।
लेकिन उनकी जगह आरएसएस ने जब लालकृष्ण आडवाणी को बिठाया तो भाजपा एक के बाद एक जीत हासिल करती चली गई और पार्टी के कट्टरपंथियों ने वाजपेयी को दरकिनार कर दिया।
“राजनीति में आना मेरी सबसे बड़ी भूल”
वाजपेयी ने आडवाणी या
मुरली मनोहर जोशी की तरह पार्टी में अपना गुट बनाने की कभी कोशिश नहीं की। एक बार उन्होंने लिखा, ‘‘राजनीति में आना मेरी सबसे बड़ी भूल थी। इसने मेरे जीवन में एक अजीब किस्म का खालीपन ला दिया है।‘‘
हाल ही में प्रकाशित अपने कविता संग्रह में उन्होंने कुछ ऐसी ही भावना व्यक्त की हैः
जो जितना ऊंचा
उतना ही एकाकी होता है
पृथ्वी पर
मनुष्य ही ऐसा एक प्राणी है
जो भीड़ में अकेला और
अकेले में भीड़ से
घिरा अनुभव करता है
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