NK's Post

Bail for Union Carbide chief challenged

Image
NK SINGH Bhopal: A local lawyer has moved the court seeking cancellation of the absolute bail granted to Mr. Warren Ander son, chairman of the Union Carbide Corporation, whose Bhopal pesticide plant killed over 2,000 persons last December. Mr. Anderson, who was arrested here in a dramatic manner on December 7 on several charges including the non-bailable Section 304 IPC (culpable homicide not amounting to murder), was released in an even more dramatic manner and later secretly whisked away to Delhi in a state aircraft. The local lawyer, Mr. Quamerud-din Quamer, has contended in his petition to the district and sessions judge of Bhopal, Mr. V. S. Yadav, that the police had neither authority nor jurisdiction to release an accused involved in a heinous crime of mass slaughter. If Mr. Quamer's petition succeeds, it may lead to several complications, including diplomatic problems. The United States Government had not taken kindly to the arrest of the head of one of its most powerful mul...

2018 मध्य प्रदेश विधान सभा चुनाव : ब्रांड शिवराज की कसौटी

Bhaskar 21 September 2018

2018 MP Assembly election a test for Brand Shivraj


NK SINGH


२००३ के विधान सभा चुनाव प्रचार की आखिरी शाम. कार ओरछा के रास्ते गड्ढों में हिचकोले ले रही थी. रात के अँधेरे को चीरती हेडलाइट की रोशनी सड़क के किनारे पड़े गिट्टी के ढेरों पर पड़ी. दिग्विजय सिंह उस तरफ इशारा करते हुए बोले, “चुनाव के बाद सड़क का काम शुरू हो जायेगा.”

सड़क की मरम्मत तो हुई. पर तबतक दिग्विजय सिंह मुख्य मंत्री नहीं थे. उनकी जगह उमा भारती आ गयी थीं.

लालू यादव से प्रभावित दिग्विजय सिंह का खयाल था कि डेवलपमेंट से वोट नहीं मिलते. पर उनकी सोशल इंजीनियरिंग धरी की धरी रह गयी. दलित एजेंडा का पांसा उल्टा पड़ गया. गांवों में सवर्ण और ओबीसी लामबंद हो गए.

पर उस चुनाव में कांग्रेस की करारी हार के पहले दिग्विजय सिंह ने एक और काम किया था ---- मध्य प्रदेश को दो हिस्सों में बाँटने का. आनन-फानन में असेंबली से प्रस्ताव पास करा कर सन २००० में छत्तीसगढ़ बना. 

नए राज्य ने न केवल मध्य प्रदेश का राजनीतिक भूगोल बदल दिया बल्कि उसके राजनीतिक इतिहास को भी प्रभावित किया. 

पहले प्रदेश में कांग्रेस और भारतीय जनता पार्टी के बीच वोटों का अंतर आम तौर पर एक से तीन प्रतिशत के बीच हुआ करता था. पर छत्तीसगढ़ बनने के बाद वह बढ़कर ८ % से भी ज्यादा हो गया.

२००३ की हार के बाद कांग्रेस लगातार कमजोर होती चली गयी और भाजपा मजबूत. उसके वोटों में लगभग ६ % की गिरावट आई. दूसरी तरफ, भाजपा के विधायकों जीतने का औसत मार्जिन बढ़कर दोगुने से ज्यादा हो गया. भाजपा का जनाधार बढ़ा ही, उसने नए इलाकों पर भी कब्ज़ा किया. अपने पारंपरिक गढ़ मालवा-निमाड़ और मध्य भारत के साथ-साथ वह महाकौशल और बुंदेलखंड में भी मजबूत होकर उभरी.

मध्य प्रदेश में राजनीति की धूरी कांग्रेस से खिसककर भाजपा के पास आ गयी है. पिछले कुछ चुनावों के आंकड़े देखें तो भाजपा को सत्ता से हटाना तभी मुमकिन है अगर उसके खिलाफ कोई कोई हवा चले. 

इसकी दो वजहें हैं: कांग्रेस और भाजपा के बीच वोटों का बढ़ता हुआ अंतर और छोटी क्षेत्रीय शक्तियों का उदय. २००३ के बाद से इन छोटी पार्टियों ने कुल वोट के एक-तिहाई से लेकर पांचवे हिस्से तक पर अपना कब्ज़ा किया है. सत्ता विरोधी इन वोटों के बंटवारे का सीधा फायदा भाजपा को होता है.

अचरज नहीं कि कांग्रेस इस दफा अपनी तरफ से पहल कर बड़ी शिद्दत से भाजपा के खिलाफ गठबंधन खड़ा करने की कोशिश कर रही है. 

इस गठबंधन का फायदा कांग्रेस को खासकर उन ३५ से ४५ सीटों पर हो सकता है जिसमें त्रिकोणीय संघर्ष की वजह से हार-जीत का मार्जिन २ % से कम वोटों से तय होता है.

प्रदेश के राजनीतिक क्षीतिज पर भाजपा ने अपनी ऐसी पकड़ कोई एक दिन में नहीं बनायीं. जनसंघ के रूप में एक केवल एक चौथाई वोटों पर संतोष करने वाली पार्टी को अब औसतन ३७ से ४० प्रतिशत वोट मिलते हैं. 

इसकी एक वज़ह है २००३ के बाद भाजपा के चरित्र में गुणात्मक परिवर्तन. अब भाजपा वह पार्टी नहीं रही जिसे चुनाव की वैतरणी पार करने के लिए गौ माता की पूँछ पकडनी पड़ती थी.

भाजपा ने कांग्रेस के चुनावी एजेंडा पर कब्ज़ा जमाकर उसके वोट बैंक में जबरदस्त सेंध मारा है. उसका फोकस उन तबकों पर है जो कांग्रेस की पारंपरिक रणनीति का हिस्सा हुआ करते थे ---- किसान, आदिवासी, दलित, शहरी गरीब और महिलाएं. 

अब इस चुनाव में एक कदम आगे बढ़कर भाजपा एक रेडिकल अवतार में सामने आया है. मजदूरों और छोटे किसानों पर केन्द्रित अपनी संबल योजना के लिए उसने सरकारी खजाने का मुंह खोल दिया है. 

मुख्य मंत्री शिवराज सिंह चौहान अपनी रैलियों में वामपंथियों का प्रिय नारा लगा रहे हैं: “नया ज़माना आएगा, कमाने वाला खायेगा.”

एक ज़माने में जनसंघ को उसके आलोचक बनिया-ब्राह्मण पार्टी कहकर उसका मजाक उड़ाते थे. भाजपा के अधिकतर नेता खाते-पीते घरों के कुलीन व्यक्ति हुआ करते थे. २००३ के पहले के उसके तीनो मुख्य मंत्री, वीरेंद्र कुमार सखलेचा, कैलाश जोशी और सुन्दरलाल पटवा, उसी तबके से थे. 

पर २००३ के बाद सारे मुख्य मंत्री पिछड़ा वर्ग से आये हैं. उमा भारती के भाषणों में निरंतर उनके बचपन के घोर दारिद्र्य का जिक्र होता था. बाबूलाल गौर एक मिल मजदूर थे. शिवराज सिंह एक छोटे किसान परिवार से आते हैं.

भाजपा ने न केवल ओबीसी वोट साधे, बल्कि कांग्रेस के दलित और आदिवासी आधार में भी अच्छी सेंध लगायी. दलितों के लिए सुरक्षित सीटों में से ८० प्रतिशत उसके पास हैं. कांग्रेस का हिस्सा ११ % हैं. 

आदिवासी वोट जरूर डांवाडोल हैं. जय आदिवासी संगठन के बढ़ते प्रभाव और गोंडवाना-कांग्रेस तालमेल की ख़बरों ने भाजपा के लिए अनिश्चितता की हालत पैदा कर दी है.

अभी तक भाजपा का एक बड़ा सपोर्ट बेस सवर्ण तबकों में रहा है. उनकी आबादी भले ही केवल १५ % हों, पर भाजपा के लिए उनका महत्त्व यह है कि आधे से भी ज्यादा सवर्ण भगवा समर्थक रहे हैं. 

इसलिए एससी-एसटी एक्ट के खिलाफ भड़के आन्दोलन ने कांग्रेस से ज्यादा भाजपा के माथे पर चिंता की लकीरें खींच दी हैं. 

सवर्ण वोट के अपने प्रभाव क्षेत्र हैं. मसलन, विन्ध्य में २९ % सवर्ण हैं, तो ग्वालियर-चम्बल में २८ %. विन्ध्य में ब्राह्मणों की ही तादाद १४ % है. मध्य भारत में ९ % राजपूत हैं, जो राजस्थान से भी ज्यादा है.     

एक ज़माने में गाँव कांग्रेस के गढ़ होते थे. पर वहां भी भाजपा का प्रभाव बढ़ा है. १९९८ में अगर कांग्रेस को गांवों की ६० % सीटें मिली थी तो २०१३ में भाजपा को ६६ % सीटें मिली. 

शहरों में भाजपा हमेशा मजबूत रही है, पर हाल के वर्षों में शहरी गरीबों में काम करके भाजपा ने वहां भी अपनी पकड़ बढाई है. हर पांच में से चार शहरी सीट भाजपा के खाते में है. 

यह कांग्रेस के लिए चिंता का विषय होना चाहिए क्योंकि अब ४५ % सीटें शहरी इलाकों में आ गयी हैं.

इन आंकड़ों के आधार पर भाजपा संतोष की साँस ले सकती है. पर पिछले एक-डेढ़ साल में हुए उप-चुनावों के नतीजे देखे तो एंटी-इनकम्बेंसी की आहट सुनाई देती है. 

मंदसौर गोलीकांड प्रदेश की राजनीति का वाटरशेड था. उसके बाद ग्रामीण इलाकों में भाजपा का आधार खिसकना चालू हुआ. 

विडम्बना है कि दिग्विजय सिंह सरकार को २००३ के चुनाव में परेशान करने वाले दो मुद्दे इस दफा फिर वापस आ गए हैं. सड़कों की ख़राब हालत को लेकर सरकार भले आँख मूंदना चाहे और उसे कांग्रेस का दुष्प्रचार बताये पर अख़बारों के पन्ने सड़कों की बदहाली की ख़बरों से भरी रहती हैं. 

दिग्विजय राज का दलित एजेंडा भी फिर इस दफा एससी-एसटी एक्ट के विरोध के रूप में भाजपा की नींद उड़ा रहा है.

क्या भाजपा इस चुनौती को ब्रांड शिवराज की लोकप्रियता के सहारे पार कर पायेगी?

२००८ के चुनाव तक लोग शिवराज का चेहरा तक लोग ठीक से नहीं पहचानते थे. उनकी सहजता उन्हें भीड़ का हिस्सा बनती थी और देहात के लोग, खासकर किसान, उनमें अपना अक्स ढूँढने की कोशिश करते थे. 

तब से अब तक भाजपा ने उनके आस-पास एक जबरदस्त आभा-मंडल बुना है. अख़बारों, टीवी और होर्डिंग से झांकते उनके फोटो और उपलब्धियों के बखान ने उन्हें एक विश्वसनीय ब्रांड के रूप में खड़ा करने की कोशिश की है. आने वाला चुनाव उसी ब्रांड के विश्वसनीयता की कसौटी है.

Dainik Bhaskar 21 September 2018

Comments