NK's Post

Bail for Union Carbide chief challenged

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NK SINGH Bhopal: A local lawyer has moved the court seeking cancellation of the absolute bail granted to Mr. Warren Ander son, chairman of the Union Carbide Corporation, whose Bhopal pesticide plant killed over 2,000 persons last December. Mr. Anderson, who was arrested here in a dramatic manner on December 7 on several charges including the non-bailable Section 304 IPC (culpable homicide not amounting to murder), was released in an even more dramatic manner and later secretly whisked away to Delhi in a state aircraft. The local lawyer, Mr. Quamerud-din Quamer, has contended in his petition to the district and sessions judge of Bhopal, Mr. V. S. Yadav, that the police had neither authority nor jurisdiction to release an accused involved in a heinous crime of mass slaughter. If Mr. Quamer's petition succeeds, it may lead to several complications, including diplomatic problems. The United States Government had not taken kindly to the arrest of the head of one of its most powerful mul...

रमेश चन्द्र अग्रवाल : क्षेत्रीय हिंदी पत्रकारिता में प्रोफेशनलिज्म का पुट

Ramesh Chandra Agarwal

Memoire: Ramesh Chandra Agarwal

30 Nov 1944 – 12 April 2017

NK SINGH

प्रधान मंत्री के साथ विदेश यात्रा का वह आमंत्रण दैनिक भास्कर  प्रकाशन समूह के चेयरमैन श्री रमेश चन्द्र अग्रवाल के लिए आया था। तब ऐसे आमंत्रण पाकर क्षेत्रीय अख़बारों के मालिकों की बांछें खिल जाती थी।

पर रमेश भाई साहेब –- भोपाल में सब उनके लिए भाई साहेब थे और वे सबके भाई साहेब थे –- अलग ही मिट्टी के बने थे। वह निमंत्रण ख़ुद स्वीकार करने की जगह उन्होंने अपनी जगह मेरे नाम की सिफ़ारिश की।
मैं इसलिए भी हैरत में था कि भास्कर ज्वाइन किए मुझे हफ़्ता भर भी नहीं हुआ था।

तत्कालीन प्रधान मंत्री अटल बिहारी वाजपेयी की अमेरिका, जर्मनी और स्विस यात्रा को कवर करने सन २००० के आख़िरी दिनों में जब मैं न्यूयॉर्क पहुँचा तो तब मुझे भास्कर तथा अन्य क्षेत्रीय अख़बारों का फ़र्क़ मालूम हुआ।

आनंद बाज़ार पत्रिका जैसे कुछ प्रतिष्ठित मीडिया घरानों को छोड़कर ज़्यादातर क्षेत्रीय अख़बारों का, ख़ासकर हिंदी अख़बारों का, प्रतिनिधित्व उनके मालिक-सम्पादक कर रहे थे।

भास्कर तबतक ऐसे अख़बारों से ऊपर उठ चुका था। और इसका श्रेय रमेशजी की दूरदृष्टि तथा उनके विज़न को जाता है। वे अपने क्षेत्रीय भाषाई अख़बारों में प्रोफेशनलिज्म लाने में जुटे थे। उनके सारे व्यवसायों का नेतृत्व प्रोफ़ेशनल लोगों के हाथों में था.

मालिक-सम्पादक की परम्परा वाले क्षेत्रीय हिंदी अख़बारों के लिए यह तब भी बड़ी चीज़ थी, और कुछ अपवादों को छोड़कर आज भी है। प्रिंट लाइन में सम्पादक की जगह अपने नाम के मोह से वे ऊपर उठ चुके थे।

वे बार-बार दोहराते थे -- पाठक ही हमारे मालिक हैं और अख़बार को उनकी ज़रूरतों को ध्यान में रखकर चलना चाहिए।

अख़बार में, या किसी भी मीडिया संस्थान में, संपादक और मालिक का रिश्ता हमेशा एक महीन डोरी पर सफ़र करता है. दोनों में से किसी का संतुलन बिगड़ा और वह डोर टूट जाती है.

यहाँ यह भी समझ लें कि किसी भी सम्पादक को उतनी ही आज़ादी मिलती है जितनी वो लेने की कूबत रखता है. आज़ादी किसीको भी तश्तरी पर परोस कर नहीं मिलती है।

भास्कर में काम करने के दौरान, ऐसा नहीं कि मतभेद के अवसर नहीं खड़े होते थे। दोपहर ढलने के बाद अक्सर उनसे मुलाक़ात होती थी और दुनियाँ-जहाँ की चर्चा के साथ चाय की प्याली पर उन मसलों पर बातचीत होती थी।

मेरे कार्यकाल के दौरान भोपाल में आए दिन या तो कांग्रेसी –- तब दिग्विजय सिंह सत्ता में थे –- या बीजेपी वाले अख़बार की शिकायत लेकर आ जाते थे। दोनों अख़बार की कवरेज को लेकर नाराज़ रहते थे।

रामनाथ गोयनका जैसे अख़बार मालिक की पाठशाला में मुझे सिखाया गया था कि ऐसी शिकायतें एक तमग़ा होती हैं। रमेशजी ऐसी शिकायत लेकर आने वालों को बड़े धीरज के साथ सुनते थे। पर उसे  हथियार बनाकर उन्होंने कभी सम्पादक पर हावी होने की कोशिश नहीं की।

राजनीति में उनकी अच्छी ख़ासी दिलचस्पी थी। उस बारे में वे खोद-खोद कर पूछते थे। समाज के सारे वर्ग के लोगों से, जिनमें तमाम पार्टियों के बड़े से बड़े राजनेता भी शामिल थे, उनकी मुलाक़ात बड़े सहज माहौल में होती थी। घटनाओं के बारे में उन्हें इतनी अंदरूनी जानकारी होती थी कि निपुण से निपुण खोजी पत्रकार भी शर्मा जाये.

रमेशजी की सहजता और सादगी के बारे में बात करने वाले असंख्य लोग मिलेंगे। उनका बिज़नेस साम्राज्य एक कारोबारी के रूप में उनकी सफलता और जोखिम मोल लेने की उनकी कूवत की कहानी आप कहता है।

एक कारोबारी के नाते वे सबसे बनाकर चलते थे। बैठे बैठाए पंगा लेना उनका स्वभाव नहीं था। लेकिन अगर कोई लड़ाई लादता था तो वे पीछे भी नहीं हटते थे।

मिल्कियत के विवाद के बहाने मध्यप्रदेश के एक भूतपूर्व मुख्यमंत्री ने भास्कर के ग्वालियर दफ़्तर पर सरकारी ताला डलवा दिया था। रमेशजी ने प्रेस के सामने ही सड़क पर टेंट ताना और दफ़्तर चालू कर दिया। हफ़्तों भास्कर उसी टेंट से निकलता रहा।

बाद में अदालत से उन्हें राहत मिली और दफ़्तर तथा प्रेस सरकारी क़ब्ज़े से बाहर निकले। (उस किस्से के बारे में जल्दी ही इसी वेबसाइट पर पढ़िए.)

उनकी उदारता के ढेर सारे क़िस्से आपको सुनने मिल जाएँगे। मेरा उनसे पहला परिचय १९८० की शुरुआत में हुआ। तब मैं पत्रकारों की ट्रेड यूनियन में ख़ासा ऐक्टिव था। हम अक्सर उनके पास यूनियन के लिए चंदा माँगने जाते थे।

कहने की ज़रूरत नहीं कि हमारी ज़्यादातर गतिविधियाँ अख़बार मालिकों के ख़िलाफ़ होती थीं। इन संस्थानों में भास्कर भी शामिल था। पर इसके बावजूद रमेशजी खुले हाथ से हमें चंदा देते थे।

बाज़ वक़्त उनकी उदारता चौंकाने वाली होती थी। भास्कर में मेरे ज्वाइन करने के फ़ौरन बाद का क़िस्सा है। भोपाल संस्करण के एक स्ट्रिंगर का असामयिक निधन हो गया। उस समय तक भास्कर के ब्यूरो अख़बार का सरकुलेशन भी देखते थे और विज्ञापन भी।

मैं उस स्ट्रिंगर के परिवार की आर्थिक मदद की ख़ातिर चेयरमेन से मिलने गया। क़ानूनी रूप से संस्थान का इस केस में कोई आर्थिक दायित्व नहीं बनता था। मैं सोचता था कि रमेशजी ज़्यादा से ज़्यादा कुछ आर्थिक मदद कर देंगे।

उन्होंने जो निर्णय लिया, वह, कम से कम मेरे लिए चौंकाने वाला था। उस स्ट्रिंगर पर विज्ञापन और सरकुलेशन की मद में कुछ बक़ाया निकलता था। उसे उन्होंने माफ़ करने के ऑर्डर दिए, उसकी पत्नी के लिए आजन्म पेन्शन बाँध दी और कहा कि उसके बच्चों की पढ़ाई का ख़र्चा भास्कर उठाएगा।

यह न केवल मेरी उम्मीद से, बल्कि शायद उसके परिवार वालों की उम्मीद से भी ज़्यादा था।
शायद ऐसे ही लोगों की दुआओं से वे अपने बिज़नेस साम्राज्य को इतना फैलाते हुए इस ऊँचाई तक ले जा पाए।

(लेखक दैनिक भास्कर के साथ सन २००० से २००६ तक जुड़े रहे थे।)

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