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Author at a function to release Prabhash Joshi's books on 30 July 2008 in Delhi. Left to right: Namvar Singh, Prabhash Joshi, NK Singh |
Prabhash Joshi
15 July 1937 - 5 November 2009
NK SINGH
नामवर सिंह अचम्भे
में थे. और दिल्ली के उस खचाखच भरे सभागार में बैठे कई दूसरे लोग भी. अवसर था
हिंदी के शीर्ष संपादक प्रभाष जोशी के पांच खण्डों में छपे लेखों के संकलन के
विमोचन का. राजकमल प्रकाशन ने लगभग २१०० पेजों में फैले इस संकलन को 2008 में एक
साथ रिलीज़ करने की योजना बनाई थी.
हिंदुस्तान के कई
बड़े राजनेताओं से और मूर्धन्य पत्रकारों तथा लेखकों से प्रभाषजी की नजदीकी किसी से
छिपी नहीं थी. मौजूदा चलन के हिसाब से ---- और पब्लिसिटी के भी हिसाब से ---- वे
चाहते तो प्राइम मिनिस्टर या प्रेसिडेंट उनकी किताबों का विमोचन कर सकते थे. पर
हमेशा की तरह प्रभाषजी ने इससे हट कर काम किया.
उन्होंने प्रकाशक
से कहा कि उनकी किताब पांच पत्रकार रिलीज़ करेंगे. वे प्रचलित अर्थो में नामी
पत्रकार नहीं थे. इन पत्रकारों में एक भी ऐसा नहीं था जो जिसकी उपस्थिति दूसरे दिन
अख़बार की सुर्खियाँ बनती या जिसकी वजह से उन किताबों की चर्चा होती. ज्यादातर लोग
ऐसे थे जो परदे की पीछे रहकर काम करते थे.
ऐसे लोगों को क्यों
चुना गया? प्रभाष जोशी ने सभागार में समझाया: “हमारे मालवे में घर
में जब कोई मंगल प्रसंग आता है तो सबसे पहले अपने कुनबे को याद किया जाता है. और
मेरा कुनबा तो यही लोग हैं.”
इन पांच लोगों में
शामिल थे पर्यावरण पर देसी समझ को प्रतिष्ठा दिलाने वाले अनुपम मिश्र, जो जनसत्ता
में प्रभाष जी के सहयोगी थे.
दूसरे पत्रकार थे प्रभात खबर के प्रधान संपादक
हरिवंश, जो सामाजिक सरोकारों वाली पत्रकारिता की हिंदी में पुनर्स्थापना के लिए
विख्यात हैं. अब हरिवंश जी राज्य सभा के उपाध्यक्ष हैं.
तीसरे सज्जन थे अमर उजाला के तत्कालीन संपादक शशि शेखर, जिनकी
अगुवाई में अब हिंदुस्तान नयी ऊँचाई छू रहा है.
कुनबे के चौथे सदस्य
थे दैनिक भास्कर के तत्कालीन प्रधान संपादक श्रवण गर्ग, जो गाँधी पीस फाउंडेशन के दिनों से प्रभाष जी से जुड़े थे.
मैं शायद अकेला अंग्रेजी का पत्रकार
था. तब मैं हिंदुस्तान टाइम्स के भोपाल सस्करण का रेजिडेंट एडिटर था.
पांच नवम्बर 2015 को
प्रभाष जोशी की छठी पुण्यतिथि की मौके पर मध्य प्रदेश के राजगढ़ जिला प्रेस क्लब
द्वारा आयोजित एक कार्यक्रम में बोलते हुए मुझे यह घटना याद आई.
जिस तरह से
प्रभाषजी ने विमोचन के लिए अपने “कुनबे” का चयन किया, दिखाता है कि वे किस तरह अलग
हट कर सोचते थे. हमें एक ऐसे व्यक्ति की झलक मिलती है जो अख़बार की हैडलाइन से ऊपर
उठ चुका है.
मेरे लिए तो वह एक
कभी नहीं भूलने वाली घटना थी. एक शिष्य अपने गुरु की किताब का विमोचन कर रहा था.
प्रभाष जोशी जी से मेरी
पहली मुलाकात १९७७-७८ में हुई. तब मैं नईदुनिया में काम करता था.
श्री राजेंद्र माथुर मेरे संपादक थे और मेरा काम था सम्पादकीय पेज पर उनको सहयोग करना. खासकर
मेरा काम अखबार में छपने वाले पत्रों को सम्पादित करना था. प्रभाष जी रज्जू बाबू
के अभिन्न मित्र हुआ करते थे.
प्रभाषजी ने पत्रकारिता का अपना कैरियर नईदुनिया
से ही शुरू किया था. बाद में वे गाँधी पीस फाउंडेशन में काम करने दिल्ली चले गए और
फिर जयप्रकाश नारायण के साथ जुड़ गए. इंदौर प्रभाषजी का घर था और जब भी वे इंदौर
आते तो नईदुनिया जरूर आते थे.
नईदुनिया के दफ़्तर में १९७७-७८ में प्रभाषजी से हुई वह
मुलाकात कब और कैसे नजदीकी में बदल गयी मुझे पता भी नहीं चला. अगले तीन दशकों तक,
उनकी असामयिक मृत्यु पर्यंत, उनका स्नेह मुझपर बना रहा.
पत्रकारिता में
मेरे कैरियर को गढ़ने में प्रभाषजी का बहुत बड़ा योगदान था. उनकी ही कोशिशों की वजह
से में १९७८ के अंत में मैं इंडियन एक्सप्रेस ज्वाइन कर पाया.
इमरजेंसी ख़त्म होने
के समय इंडियन एक्सप्रेस दिल्ली का सबसे बड़ा अख़बार बन कर उभरा था. प्रभाषजी
तब इंडियन एक्सप्रेस के चंडीगढ़ संस्करण के स्थानीय संपादक हुआ करते थे.
बाद में उन्होंने
जब जनसत्ता चालू किया जो हिंदी पत्रकारिता में मील का एक पत्थर साबित हुआ
तो मुझे फिर याद किया. १९८७ में उन्होंने जब जनसत्ता का चंडीगढ़ एडिशन प्रारंभ
करने की सोची तो मुझे फिर याद किया.
तब मैं इंडिया टुडे का मध्य प्रदेश
संवाददाता हुआ करता था. उन्होंने मुझे जनसत्ता के चंडीगढ़ एडिशन का स्थानीय संपादक नियुक्त कर
दिया. मैं वहां गया भी, पर निजी वजहों से अख़बार ज्वाइन नहीं कर पाया. तब पंजाब में
सिख आतंकवाद अपने चरम पर था.
वह ऑफर स्वीकार न
करने का उनके साथ काम करने का मौका गंवाने का मुझे हमेशा मलाल रहेगा. शायद यह एक
ऐसा अफ़सोस है जो मेरे साथ ही जायेगा.
यह मलाल इसलिए भी है कि मैं श्री प्रभाष जोशी
को आजादी के बाद के उन चार संपादकों में मानता हूँ जिहोने हिंदी में पत्रकारिता के
नए आयाम गढ़े.
एक संपादक का
मूल्यांकन हम कैसे कर सकते हैं? मेरी राय में वह अपने पीछे पत्रकारिता की जो धरोहर
छोड़ जाते हैं, वही वह कसौटी है जिसपर उनको परखा जा सकता है.
क्या है यह धरोहर? यह
धरोहर है, उनका अख़बार या उनका रिसाला. वही महान संपादकों को भीड़ से ऊपर, भीड़ से
अलग खड़ा करती है.
आज़ादी के बाद की
हिंदी पत्रकारिता को याद करें तो चार प्रकाशन ऐसे हुए हैं जिन्होंने ऐसे आयाम गढ़े,
जिन तक बाद में कोई पहुँच नहीं पाया.
पहली याद आती है धर्मवीर भारती के ज़माने के धर्मयुग की. यह उन्ही का जादुई स्पर्श था जिसने धर्मयुग
को हर पढ़े लिखे हिंदी भाषी परिवार के लिए एक अनिवार्य पाठ्य सामग्री बना दिया था.
दूसरी याद आती है सच्चिदानंद हीरानंद वात्स्यायन अज्ञेय की. उनके दिनमान ने
हिंदी में एक पूरी पीढ़ी को पत्रकारिता सिखाई.
इसी कड़ी में हम राजेंद्र माथुर के
ज़माने की नईदुनिया को याद कर सकते हैं. रज्जू बाबू की सबसे बड़ी खूबी थी कि
सुदूर मालवा के एक कसबेनुमा शहर से निकलने वाले एक हिंदी दैनिक को उन्होंने
बौद्धिक रूप से अंग्रेजी पत्रकारिता की बराबरी में खड़ा किया.
हिंदी पत्रकारिता
में नए आयाम गढ़ने वाला चौथा प्रकाशन था जनसत्ता, जो सही मायनों में
प्रभाषजी का मानस पुत्र था.
सबकी खबर लेने वाला और सबको खबर देने वाला जनसत्ता
क्यों इतना सफल हुआ और उस समय निकलने वाले अन्य अख़बारों से वह किस मायने में अलग
था, इसके बारे में खुद प्रभाषजी कई बार विस्तार से लिख चुके हैं.
भाषा के स्तर पर जनसत्ता
ने जिस तरह नई जमीन तोड़ने का काम किया, वह अब पत्रकारिता के विद्यार्थियों के लिए
विश्लेषण का विषय है.
मेरी राय में जनसत्ता
ने यह सब करने के अलावा एक नया काम भी किया ---- अख़बार को बौद्धिक बहस के एक
प्लेटफार्म के रूप में विकसित करने का.
अपने मित्र श्री राजेंद्र माथुर की तरह ही
श्री प्रभाष जोशी भी खांटी डेमोक्रेट थे. निजी जिन्दगी में भी, और अख़बार के पन्नों
में भी.
उनकी अपनी विचारधारा थी, आइडियोलॉजी थी, पर सारे विचारों को वे अपने अख़बार
में प्लेटफार्म मुहैय्या कराते थे.
जनसत्ता में हरिशंकर व्यास खाकी नीकर पहनकर पाठकों से
गपशप लड़ा रहे थे तो मंगलेश डबराल लाल झंडा थामे थे और बनवारी तथा अनुपम मिश्र का
लेखन उन्हें गांधीवाद और सर्वोदय के करीब ले जाता था. सबको अपना काम करने की और अपनी
बात कहने की पूरी आज़ादी थी.
जनसत्ता की इस पालिसी की वजह से प्रभाषजी के बारे में कुछ
भ्रांतियां भी फैली. मसलन जनसत्ता की शुरुआत में ही राजस्थान के देवरालामें सती कांड हो गया था. सम्पादकीय पेज पर कुछ ऐसी सामग्री छपी जिससे ऐसा आभास होता
था कि जनसत्ता सती प्रथा के पक्ष में है.
जाहिर है, उस सामग्री के लिए
जिम्मेदार कोई और थे. पर प्रभाषजी ने अपने उस सम्पादकीय सहयोगी को अपनी बात कहने
की पूरी छूट दी. इससे पूरे देश में बहस चल गयी.
नतीजा यह हुआ कि शुरुआत में
वामपंथी और कांग्रेसी विचारधारा के लोग समझते थे कि प्रभाषजी संघी हैं. इंडियन एक्सप्रेस
में काम करने वाले कई वरिष्ठ संपादकों तक ने उस समय मुझसे पूछा था कि क्या श्री
जोशी हिंदूवादी थे.
विडम्बना देखिये कि जब १९९२ में बाबरी मस्जिद गिरा दी गयी तो जोशीजी
हिंदुत्व विचारधारा के प्रखरतम आलोचक के रूप में उभरे. जो वामपंथी उन्हें दिन-रात
कोसते थे, प्रभाषजी अब उनके हीरो थे.
अख़बार हिंदी पट्टी में वैचारिक बहस के एक
प्लेटफार्म के रूप में जाना जाने लगा. वहां सबको अपनी बात कहने की पूरी आज़ादी थी.
सर्वोदय आन्दोलन से पत्रकारिता में आये प्रभाषजी का एक और रूप १९९५ में जनसत्ता
से रिटायर होने के बाद सामने आया. यह रूप था एक एक्टिविस्ट का. यायावर प्रवृति तो
हमेशा से उनमें थी.
जनसत्ता से मुक्त होने के बाद वे देश के कोने-कोने मे
घूम-घूमकर जन-जंगल-जमीन से सम्बंधित सवाल उठाने लगे.
अपनी मृत्यु के समय प्रभाष जोशी एक अत्यंत महत्वपूर्ण मुहिम में लगे थे. वे
उस अग्रिम दस्ते में थे जिसने पत्रकारिता के नासूर, पेड न्यूज़ के खिलाफ झंडा उठाया
था और जिसकी वजह से एडिटर्स गिल्ड जैसी पत्रकारों की संस्थाओं ने पेड न्यूज़ के
खिलाफ मुहीम खड़ा किया.
जोशीजी की मान्यता थी कि पेड न्यूज़ न केवल पत्रकारिता को
कलंकित कर रहा है बल्कि वह भारतीय लोकतंत्र की जड़ों पर भी कुठाराघात है.
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Palpal India November 2015 |
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Palpal India November 2015 |
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