NK's Post

Resentment against hike in bus fare mounting in Bhopal

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NK SINGH Though a Govt. directive has frustrated the earlier efforts of the MPSRTC to increase the city bus fares by as much as 300 per cent, the public resent even the 25 per cent hike. It is "totally unjust, uncalled for and arbitrary", this is the consensus that has emerged from an opinion conducted by "Commoner" among a cross-section of politicians, public men, trade union leaders, and last but not least, the common bus travelling public. However, a section of the people held, that an average passenger would not grudge a slight pinche in his pocket provided the MPSRTC toned up its services. But far from being satisfactory, the MPSRTC-run city bus service in the capital is an endless tale of woe. Hours of long waiting, over-crowding people clinging to window panes frequent breakdowns, age-old fleet of buses, unimaginative routes and the attitude of passengers one can be patient only when he is sure to get into the next bus are some of the ills plaguing the city b...

छट के बहाने अपने गाँव की छटा



Getting nostalgic about Chhath



NK SINGH

गंगौर छोड़े हुए जमाना हो गया. बिहार से निकले हुए भी एक युग बीत गया. लगभग आधी सदी से परदेश की खाक छान रहा हूँ. इन दिनों भोपाल में हूँ. कहा जाता है कि इस शहर को राजा भोज (ईसा पूर्व १०१०-१०५५ ई.) ने बसाया था. 

राजा भोज का नाम पहली दफा तब सुना था, जब अक्षर ज्ञान भी नहीं हुआ था. अंगुरी जितने बड़े अंगुरिया नामक बच्चे का विस्मयकारी किस्सा सुनने की चाहत अक्सर हमें घूरे के पास खींच लाती थी.

घूरे की आग ताप रहे बड़े-बूढ़े हमारा ज्ञान वर्धन करने के लिए घुट्टी रटाते थे. इस घुट्टी के दो प्रमुख पाठ थे. एक, राजा भोज हमारे पूर्वज थे. दो, हमारा हाल-मुकाम भले गंगौर हो, पर हमारा घर था, धारा नगरी.

धारा नगरी का संगीतमय नाम सुनकर उस ज़माने में हमें लगता था कि वह चंद्रकांता संतति के चुनार किले सी कोई रोमांचक जगह होगी. थोड़ी समझ आई तो पता चला कि मध्य प्रदेश के धार शहर का यह प्राचीन नाम था. धारा नगरी भोज साम्राज्य की राजधानी था.

पता नहीं किस भीषण युद्ध या प्राकृतिक आपदा के चलते परमारों के उस कुनबे ने कब धारा नगरी से पलायन किया. पर इतना पक्का था कि इंद्र सिंह और चन्द्र सिंह नामक दो भाइयों ने १५०० किलोमीटर का सफ़र तय कर बूढ़ी गंडक के किनारे गंगौर गाँव में अपना लाव-लश्कर डाला था.

जगह बड़ी सोच-समझ कर चुनी गयी थी. थोड़ी दूर आगे ही बूढी गंडक का मुहाना था, जहाँ वह गंगा में मिलती थी. अर्थात इफरात पानी. बचपन की मुझे याद है. बहियार में सात-आठ हाथ खोदने पर पानी निकल आता था. 

हमारे अवधेश भाई साब ही नहीं, दूसरे कई जानकारों का भी ख्याल है कि गंगौर वास्तव में गणगौर का अपभ्रंश है. इंद्र सिंह और चन्द्र सिंह जिस धारा नगरी से आये गणगौर वहां का सबसे बड़ा सांस्कृतिक-सामाजिक त्यौहार है.

सिंह बंधु धार से आ तो गए, पर धार से कभी अलग नहीं हो पाए. धार में रहने वाले उनके वंश-पुरोहित १५०० किलोमीटर का सफ़र तय कर हर साल गंगौर आया करते थे. मक्सद होता था, फसल में अपना हिस्सा वसूलना. यह सिलसिला पिछली सदी के उत्तरार्द्ध तक चलता रहा.

सैकड़ों वर्षों तक साल-दर-साल चलने वाली इस दुष्कर यात्रा के बारे में सोचकर अभी भी देह में फुरहरी छूटती है. अब तो रेलगाड़ी है. जब नहीं थी, तब कैसे आते होंगे? १५०० किलोमीटर तय करने में कितने दिन लगते होंगे? और रास्ते में ठग और पिंडारी और लुटेरे और डाकू!

वह क्या सेतु था जिसने इस रिश्ते को इतने अरसे तक टिकाये रखा? क्या केवल कुछ मन अनाज या चांदी के चंद सिक्के? मार्खेज कहते हैं, घर वहीँ है जहाँ आपके पुरखों की हड्डियाँ गड़ी हैं.

१५०० किलोमीटर लम्बे इस रिश्ते ने गंगौर के बाशिंदों को हमेशा उद्ध्वेलित किया है. अपनी निरंतर चलने वाली तमाम यात्राओं के बीच मेरे पिता ने भी एक दफा धार जाकर उस विस्मृत कुल-पुरोहित को ढूँढने की कोशिश की. पर वे अपने मक्सद में कामयाब नहीं हो पाए.

हम अपनी जड़ों को हमेशा ढूंढने की कोशिश करते रहते हैं. इसलिए, राजा भोज के भोपाल में बसने के बाद भी मैं अपनी जड़ें बूढी गंडक के किनारे बसे उस गाँव में ढूंढता हूँ जो मुझे हमेशा रेणु के मैला आँचल और परती परिकथा की याद दिलाता है.

                                  दो

पुरखों की भूमि में इन जड़ों को सिंचित करने का काम किया छट ने. माय छठ करती थी. वे भोपाल में भी रहती थीं तो शुरुआत में गाँव जाकर पूजा करना ज्यादा सुविधाजनक होता था. फिर बाद में छठ के समय ट्रेनों में होने वाली मारा-मारी और असुविधा से बचने के लिए भोपाल के तालाब में ही हाथ उठाने लगे.

उन दिनों पूरा तालाब लगभग खाली दिखता था. धीरे-धीरे एक्का-दुक्का लोग आने लगे. अब तो भारत के दूसरे तमाम शहरों की तरह भोपाल में भी छठ पूजा करने वालों की इस कदर भीड़ होने लगी है कि घाटों पर तिल रखने की जगह नहीं बचती है.

चेन्नई के समुद्र तट से लेकर चंडीगढ़ के तालाब तक छठ पूजा की धूम-धाम दो तथ्यों को रखांकित करती है. पहला, रोजगार की तलाश में घर-द्वार छोड़कर बिहार-यूपी के बाहर बसने वालों की तादाद कई गुना बढ़ी है. और वह बढती जा रही है. २०११ के जनगणना के आंकड़ों के मुताबिक 1० करोड़ में से लगभग 66 लाख बिहारी राज्य के बाहर रहते हैं.

वैसे मेरा अपना अनुभव बताता है कि प्रवासियों की संख्या इससे कहीं ज्यादा होनी चाहिए. मेरे बचपन में गाँव में जब हम भोज-भात करते थे तो आठ मन चावल रींधा जाता था. पचास साल बाद जब आबादी दोगुनी से ज्यादा बढ़ चुकी है, हमारा काम चार मन चावल में चल जाता है.

जाहिर है आधे से ज्यादा लोग गाँव के बाहर रहते हैं. पहले लोग अकेले खटने जाते थे, अब बीबी-बच्चों को साथ ले जाते हैं.      

पिछले कुछ दशकों में छठ पर्व के प्रति लोगों का आकर्षण और सांस्कृतिक-सामाजिक जीवन में उसका महत्त्व इस कदर बढ़ा है कि आज यह त्यौहार सैकड़ों-हज़ार करोड़ रूपये के कारोबार में बदल गया है. रेलवे बिहार के लिए स्पेशल ट्रेनों का इंतजाम करता है. हवाई जहाज़ के टिकटों के दाम बढ़ जाते हैं. मुंबई से लेकर दिल्ली तक और भोपाल से लेकर कोचीन तक दुकानों पर छठ पूजा में इस्तेमाल होने वाली सामग्री मिलने लगी है.

छठ जिस रफ़्तार से बिहार-झारखण्ड की बाउंड्री के बाहर भी फैला है, वह मार्केट इकानामी के डायनामिक्स की तरफ इशारा करता है.

चुस्त जीन्स और झीना टॉप पहने आधुनिकाओं से लेकर सिलिकॉन वैली में कंप्यूटर के जटिल अल्गोरिथम से जूझ रहे इनफार्मेशन टेक्नोलॉजी के महारथियों तक छठ का क्रेज इस कदर बढ़ा क्यों है?

अतीत की सुखद घटनाओं के प्रति लगाव का अपना ही रोमांस है. छठ पूजा के प्रति यह बढ़ता लगाव इसी श्रेणी में आता है. परदेश में बसे लोग अपनी जड़ों से जुड़े रहना चाहते हैं. और छठ पर्व से बेहतर इसका क्या जरिया हो सकता है?

Purvanchal Chhath Evan Sanskritik Vikas Samiti, souvenir 2019

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