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Bail for Union Carbide chief challenged

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NK SINGH Bhopal: A local lawyer has moved the court seeking cancellation of the absolute bail granted to Mr. Warren Ander son, chairman of the Union Carbide Corporation, whose Bhopal pesticide plant killed over 2,000 persons last December. Mr. Anderson, who was arrested here in a dramatic manner on December 7 on several charges including the non-bailable Section 304 IPC (culpable homicide not amounting to murder), was released in an even more dramatic manner and later secretly whisked away to Delhi in a state aircraft. The local lawyer, Mr. Quamerud-din Quamer, has contended in his petition to the district and sessions judge of Bhopal, Mr. V. S. Yadav, that the police had neither authority nor jurisdiction to release an accused involved in a heinous crime of mass slaughter. If Mr. Quamer's petition succeeds, it may lead to several complications, including diplomatic problems. The United States Government had not taken kindly to the arrest of the head of one of its most powerful mul...

छट पूजा: अपनी जड़ों से जुड़ने की छठपटाहट


Trying to understand amazing geographic spread of Chhath festival

NK SINGH
Hindustan 2 November 2019

पिछले पचास-साठ सालों में बिहार के सामाजिक परिवेश में क्रांतिकारी परिवर्तन आया है. अपने पहरावे, रहन-सहन और खान-पान में यहाँ का आम आदमी पूरी तरह बदल चुका है.

धोती के ऊपर बुशर्ट पहनने का रिवाज ख़त्म हो गया है. गाँव में लाउडस्पीकर पर भोजपुरी या मैथिली के गानों की जगह आप पंजाबी पॉप सुन सकते हैं. चिकन या अंडा खाने पर अब न तो प्रायश्चित करना पड़ता है, न ही जाति से बाहर निकाले जाने का खतरा रहता है. पंडितजी की जगह अब बहनें राखी बंधने लगी हैं.

आधुनिकता की इस बयार का पारंपरिक छठ पूजा पर थोड़ा भी असर नहीं पड़ा है. उल्टे, पिछले कुछ दशकों में छठ के प्रति लोगों का आकर्षण इस कदर बढ़ा है कि आज यह पर्व सैकड़ों-हज़ार करोड़ रूपये के कारोबार में बदल गया है.

रेलवे देश के कोने-कोने से बिहार के लिए स्पेशल ट्रेनों का इंतजाम करता है. हवाई जहाज़ के टिकटों के दाम बढ़ जाते हैं. मुंबई का वाशी हो या दिल्ली का मयूर विहार, भोपाल का गोविन्दपुरा हाट हो या कोचीन का ब्रॉडवे बाज़ार, सब मिनी-बिहार में बदल जाते हैं. दुकानों में छठ पूजा में इस्तेमाल होने वाली सामग्री मिलने लगती है.

चुस्त जीन्स और झीना टॉप पहने आधुनिकाओं से लेकर सिलिकॉन वैली में कंप्यूटर के जटिल अल्गोरिथम से जूझ रहे इनफार्मेशन टेक्नोलॉजी के महारथियों तक छठ के लोकगीतों का क्रेज इस कदर बढ़ा है कि वह अपने-आप में सैकड़ों करोड़ की इंडस्ट्री बन चुका है.

न्यूज़ चैनलों के एंकर सुग्गों की चोंच सोने और चांदी से मढाने में इतना मशगूल हो जाते हैं कि वे अक्सर भूल जाते हैं कि उनका काम छठ मैया का गुणगान करना नहीं, बल्कि दर्शकों तक ख़बरें पहुँचाना है. चेन्नई का समुद्र तट हो या चंडीगढ़ का तालाब, भोपाल का बड़ा ताल हो या कलकत्ता में हुगली का किनारा, देश के कोने-कोने में छठ की छठा छाई रहती है.

पिछले कुछ दशकों में सूर्य देवता की उपासना का यह धार्मिक अनुष्ठान बिहार, झारखण्ड और भोजपुरी भाषी पूर्वी उत्तर प्रदेश में एक सामाजिक-सांस्कृतिक त्यौहार के रूप में स्थापित हो चुका है.
भारतीय स्वभाव से उत्सव-प्रेमी हैं. वे अपने क्षेत्रीय त्यौहार बड़ी धूम-धाम से मनाते हैं. दुनिया भर में रहने वाले मलयालीभाषी ओणम का इंतजार करते हैं, पंजाबी बैसाखी का, गुजराती गरबा का और असम के लोग बिहू का. पर छठ जिस रफ़्तार से बिहार-झारखण्ड की बाउंड्री के बाहर फैला है, वह  बाज़ार के डायनामिक्स की तरफ इशारा करता है.

रोजगार की तलाश में घर-द्वार छोड़कर बिहार-यूपी के बाहर बसने वालों की तादाद कई गुना बढ़ी है. और, जैसा हम सभी देख रहे हैं, प्रवासी बिहारियों की संख्या बढती जा रही है. वह इस कदर बढ़ रही है कि उसने महाराष्ट्र और गुजरात जैसे संपन्न राज्यों को भयाक्रांत कर दिया है.

पहले लोग अपनी दो बीघा जमीन बचाने की जुगत में खाने-कमाने कलकत्ता और मोरंग जाते थे. मृगतृष्णा के शिकार किसान गिरमिटिया मजदूर बन मारिशस या फिजी पहुँच जाते थे. बाद में भैया लोग मुंबई के फुटपाथों पर और भैसों की खटाल में सोने लगे.

जिस साल बिहारी मजदूर पंजाब के खेतों में काम करने नहीं पहुँचता है, वहां फसल कम होती है. दिल्ली के जमुना पार वाले इलाके पर उन्होंने इस कदर कब्ज़ा जमाया है कि नेताओं को वोट मांगने के लिए भोजपुरी में भाषण देना पड़ता है.

2011 के जनगणना के आंकड़ों के मुताबिक 10 करोड़ में से लगभग 53 लाख बिहारी राज्य के बाहर रहते हैं. पर मेरा अनुभव बताता है कि प्रवासियों की संख्या इससे कहीं ज्यादा है.

मेरे बचपन में बिहार के हमारे गाँव में जब हम भोज करते थे तो आठ मन चावल रींधा जाता था. पचास साल बाद जब आबादी दोगुनी से ज्यादा बढ़ चुकी है, हमारा काम चार मन चावल में चल जाता है. जाहिर है आधे से भी ज्यादा लोग गाँव के बाहर रहते हैं. पहले मजदूर अकेले खटने जाता था, अब बीबी-बच्चों को साथ ले जाता है.     

बिहारियों के खिलाफ पूर्वाग्रह के बावजूद वहां का लेबर फ़ोर्स रोजगार पाने में सफल है. और इसकी सबसे बड़ी वजह है नयी से नयी जगह में उनकी घुल-मिल जाने की जुगत. हिंदी भाषी लोगों के लिए तमिलनाडु में काम करना कितना कठिन है, हम सब जानते हैं. पर मैंने पाया कि वहां काम कर रहे छपरा के मजदूर धाराप्रवाह तमिल में बात कर रहे थे.

अपने गाँव-जवार की अर्द्ध-सामंती व्यवस्था ने अगर उन्हें घर से बेघर किया तो लिबरल पूंजीवाद ने उनके श्रम के लिए नए बाज़ार खोले.

प्रवासी बिहारियों के एक और तबके की जरूरत से ज्यादा चर्चा होती रहती है. हर साल हजारों लड़के-लड़कियों के झुण्ड दिल्ली का रुख करते हैं, कॉलेज की पढाई करने या आईएएस की कोचिंग करने. मुख़र्जी नगर के दड़बेनुमा कमरों में दाल-भात-चोखा पर गुजर करते हैं.

अपनी आंखों में सजे सपनों और खेत-खलिहान में खट रहे बाप-दादा की कमाई के सहारे इनमें से कभी कोई कन्हैया कुमार निकल जाता है तो कोई आईएएस या आईपीएस पास करके अफसर बन जाता है. लगभग हरदसवां आईएएस अफसर उस बिहार से है, जो अभी भी भारत का सबसे अनपढ़ राज्य है.

छठ पूजा के विराट होते स्वरुप को प्रवासियों के इस विशाल लश्कर के सन्दर्भ में समझा जा सकता है. यह उत्सव नोयडा में लिट्टी-चोखा का ठेला लगानेवालों से लेकर लुटियन-टीले के साउथ ब्लाक में बैठनेवाले अपनी जड़ों से कटे प्रवासियों की एक अहम् जरूरत तो पूरा करता है.

सुखद स्मृतियों से लगाव का अपना ही रोमांस है. नोस्टालजिया मनुष्य के ह्रदय को गुदगुदाता है और ईगो को सहलाता है. तभी तो वह पीले पड़ गए कागज पर लिखे प्रेमपत्रों को अपनी झांपी में सहेज कर रखता है या मुरझा चुकी गुलाब की पंखुड़ियों को किताब के पन्नों में दबा कर रखता है.
छठ पर्व के प्रति यह बढ़ता लगाव, खासकर प्रवासी बिहारियों में, इसी केटेगरी में आता है. परदेश में बसे लोग अपनी जड़ों से जुड़े रहना चाहते हैं. और छठ मैया इसमें उनकी मदद करती हैं. 


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