NK's Post

Resentment against hike in bus fare mounting in Bhopal

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NK SINGH Though a Govt. directive has frustrated the earlier efforts of the MPSRTC to increase the city bus fares by as much as 300 per cent, the public resent even the 25 per cent hike. It is "totally unjust, uncalled for and arbitrary", this is the consensus that has emerged from an opinion conducted by "Commoner" among a cross-section of politicians, public men, trade union leaders, and last but not least, the common bus travelling public. However, a section of the people held, that an average passenger would not grudge a slight pinche in his pocket provided the MPSRTC toned up its services. But far from being satisfactory, the MPSRTC-run city bus service in the capital is an endless tale of woe. Hours of long waiting, over-crowding people clinging to window panes frequent breakdowns, age-old fleet of buses, unimaginative routes and the attitude of passengers one can be patient only when he is sure to get into the next bus are some of the ills plaguing the city b...

नियोगी हत्याकांड: कैसे पूंजीपतियों ने एक क्रांतिकारी को मरवाया


Shankar Guha Niyogi: The Last Supper

NK SINGH

नियोगी-हत्याकांड मेरे कैरियर की उन चुनिन्दा घटनाओं में से है जब एक खबरनवीस खुद खबर बन जाता है.

सितम्बर के आखिरी हफ्ते में मैं एक स्टोरी के सिलसिले में बस्तर गया था. मेरे साथ फोटो पत्रकार प्रशांत पंजियार भी थे. लौटते में हम भिलाई गए जहाँ शंकर गुहा नियोगी के आन्दोलन की वजह से नौ महीने से कई बड़े कारखाने बंद थे. 

दिन में नियोगी से मुलाक़ात के बाद उस दिन हम रायपुर के पास पिकेडली होटल में रुक गए. अगले दिन प्रशांत को दिल्ली का जहाज पकड़ना था और मुझे भोपाल की ट्रेन.

नियोगी उन लोगों में थे जिनसे काम के सिलसिले मुलाकातें कब मित्रता में बदल गयी पता ही नहीं चला. उनसे मेरी पहली मुलाकात 1977 में रायपुर जेल में हुई थी।

18 महीने देश को रौंदने के बाद इमरजेंसी उठाई जा चुकी थी। आजादी की हवा में लोग सांस लेना सीख रहे थे। ‘नक्सलवादी’ नियोगी के बारे में छत्तीसगढ़ के अखबारों में लगातार सनसनीखेज और अतिरंजित खबरें छप रही थी।

एक जगह छपा कि नियोगी की एक हुंकार पर दल्ली-राजहरा के दस-दस हजार मजदूर हथियार लेकर एक मिनट में सड़क पर आ जाते थे। उनकी अद्भुत संगठन क्षमता के बारे में अखबारों के पन्ने भरे होते थे। 

किस तरह उन्होंने राजहरा की लोहा खदानों में स्थापित कम्यूनिस्ट तथा कांग्रेसी ट्रेड यूनियनों का सफाया कर दिया। किस तरह बाहर से आया एक अज्ञात बंगाली नवयुवक रातोंरात पूरे इलाके का बेताज बादशाह बन गया। किस तरह निहत्थे नियोगी को सामने पाकर हथियारबंद पुलिस वालों के दस्ते जान छुड़ाकर भागते थे।

एक अखबार ने किस्सा छापा कि नियोगी की तलाश कर रहे पुलिस वालों ने एक नाके पर एक जीप रोकी। जीप में मुंह पर गमछा बांधे दोहरे बदन का एक युवक बैठा था। जब पुलिस वालों ने उससे नाम पूछा तो उसने कहा नियोगी। और फिर नियोगी गायब हो गया। पुलिस वाले देखते रहे. 

एक अखबार में छपा कि एक ही समय में पूरे इलाके में नियोंगी की शक्ल सूरत वाले तीन-चार युवक घूम रहे थे। एक ही समय पर कई जगह पर कई नियोगी! नियोगी एक किंवदंती बन गये थे।

उस समय मैं इंदौर के नई दुनिया में काम करता था। एक खूंखार नक्सलवादी से सनसनीखेज इंटरव्यू की आशा में मैं रायपुर जेल पहुंचा. नियोगी के संगठन ने दिल्ली राजहरा में हड़ताल की थी। उस संघर्ष की परिणति पुलिस फायरिंग में हुई थी जिसमें 12 मजदूर मारे गए थे। और इस तरह नियोगी रायपुर जेल में बंद थे।

पर रायपुर जेल की मुलाकात कक्ष में जो युवक मुझसे मिलने आया वो सीधा-सादा दिखने वालाएक अतिशय विनम्र और शर्मीला इंसान था। शांत चेहरा, चमकीली आंखें और धीमी आवाज. उनकी बातें सुलझी थीं, पर कपड़े ऐसे मुड़े-तुड़े थे मानो सीधे सड़क पर गिट्टी कूटकर आ रहा हो।

बाद में मालूम पड़ा कि वे सचमुच पत्थर खदानों में गिट्टी तोड़ने का काम करते थे.

राजहरा से लौटने के बाद मैंने कई जगह नियोगी के काम के बारे में लिखा। नई दुनिया में तो मैं काम करता ही था। उस समय हिन्दी में एक पत्रिका चालू हुई थी रविवार। वहां भी नियोगी के बारे में मैंने लिखा।

पर नियोगी के काम पर लिखे मेरे जो लेख सबसे अधिक चर्चित हुए वे इकोनॉमिक एंड पॉलिटिकल वीकली में छपे थे। इपीडब्लू ने लेखों की एक श्रृंखला छापी. एक-डेढ़ महीने की अवधि में छपे उन पांच लेखों ने नियोगी के और मजदूर यूनियन के क्षेत्र में उनके द्वारा किए जा रहे काम के बारे में पूरे हिन्दुस्तान का ध्यान खींचा।

नियोगी तब 33 साल के थे। काफी दिनों से नए भारत का सपना देख रहे थे और उसके लिए काम कर रहे थे। वे उन कुछ गिने-चुने मार्क्सवादियों में से थे जिन्होंने सचमुच में अपने आप को डिक्लासीफाई किया था। 

हमारे ज्यादातर कम्युनिस्ट नेता मध्य वर्ग या उच्च मध्य वर्ग से आते थे। मसलन जमींदार के बेटे ईएमएस, या पाइप पीने वाले ज्योति बाबू। कम्युनिस्ट आंदोलन में ऑक्सफोर्ड-केम्ब्रिज में पढ़े लोगों का दबदबा हुआ करता था। 

ज्यादातर मार्क्सवादी नेता कभी भी अपने आप को मजदूरों और किसानों के साथ एकरूप नहीं कर पाए।

नियोगी खुद मध्यम वर्ग से आते थे। पर जब उन्होंने किसानों का संगठन बनाने की सोची तो एक गांव में जाकर बटाईदार का काम करने लगे। खेत जोतते थे। 

जब उन्होंने मजदूर संगठन बनाने की सोची तो लोहे की खदानों में जाकर दिहाड़ी मजदूर बन गए। झुग्गी में रहते थे और एक मजदूर महिला से विवाह कर उन्होंने गृहस्थी बसाई। 

इस तरह से नियोगी ने अपने आप को डिक्लासीफाई किया। मजदूर उन्हें अपने में से एक मानते थे।

ट्रेड यूनियन आंदोलन को बंधी लीक से अलग ले जाकर नियोगी ने उसे सामाजिक बदलाव का जरिया भी बनाया। उनकी अगुवाई में मजदूर महिलाओं ने शराबबंदी करवाई। मजदूरों ने अपने अस्पतालस्कूल और पुस्तकालय खोलें।

१९७७ में जेल में पहली मुलाक़ात के बाद ही नियोगी से जो दोस्ती हुई वह कभी नहीं टूटी। सो, २७ सितम्बर की उस रात मैंने नियोगी को होटल में खाने पर आमंत्रित किया.

साथ में एक अन्य मित्र सामाजिक कार्यकर्ता राजेन्द्र सायल को बुलाया, जो नियोगी के हमदर्द भी थे.

उस मुलाक़ात के बारे में मैंने इंडिया टुडे के हिंदी संस्करण में १५ अक्टूबर १९९१ को लिखा था: “नियोगी उस रात खाना ठीक से नहीं खा पाए थे. बड़े होटलों की चकाचौंध के वे अभ्यस्त नहीं थे. अपने मुड़े-तुडे कुरते-पायजामे, टूटी हुई चप्पलों, बिखरे बाल और दाढ़ी की बढ़ी हुई खूंटियों के कारण गलीचे, झाड-फानूस, छूरी-काँटा, नैपकिन, फिंगर बाउल और सूट-टाई में लैस खाना परोसने वालके कर्मचारियों से उनका मेल नहीं बैठता था. डाइनिंग हॉल में दूसरी मेजों पर बैठे भद्रजन, खासकर कीमती साड़ियों में लिपटी खूबसूरत महिलाएं हमें घूरकर देख रही थीं.”

उस रात बातचीत के दौरान नियोगी ने मुझे बताया कि उनकी जान को खतरा है। उन्होंने सुना था कि भिलाई के उनके आन्दोलन से परेशान कुछ उद्योगपतियों ने उनकी हत्या के लिए सुपारी दी थी. मेरे सामने उन्होंने उन उद्योगपतियों के नाम भी लिए.

हम देर रात तक बैठकर बात करते रहे. डिनर के बाद नियोगी घर जाकर सो गए. उसी रात भाड़े के हत्यारे ने गोली मारकर उनकी हत्या कर दी। उस हत्यारे को बाद में सजा भी हुई. 

सीबीआई की तरफ से गवाह के नाते मैंने अदालत में गवाही देकर उन उद्योगपतियों के नाम भी बताए जिनपर नियोगी को शक था. उनमें से कई अभी भी इस उदारवादीअर्थव्यवस्था का फायदा उठाकर फल-फूल रहे हैं।


Prajatantra 23 Dec 2018


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