NK's Post

Resentment against hike in bus fare mounting in Bhopal

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NK SINGH Though a Govt. directive has frustrated the earlier efforts of the MPSRTC to increase the city bus fares by as much as 300 per cent, the public resent even the 25 per cent hike. It is "totally unjust, uncalled for and arbitrary", this is the consensus that has emerged from an opinion conducted by "Commoner" among a cross-section of politicians, public men, trade union leaders, and last but not least, the common bus travelling public. However, a section of the people held, that an average passenger would not grudge a slight pinche in his pocket provided the MPSRTC toned up its services. But far from being satisfactory, the MPSRTC-run city bus service in the capital is an endless tale of woe. Hours of long waiting, over-crowding people clinging to window panes frequent breakdowns, age-old fleet of buses, unimaginative routes and the attitude of passengers one can be patient only when he is sure to get into the next bus are some of the ills plaguing the city b...

ओल्ड मांक की बोतल और आधी रात की मुलाक़ात




A bottle of Old Monk and the midnight tryst

NK SINGH

जब भी मैं आरएसएस के बारे में सोचता हूँ तो भाजपा के भूतपूर्व अध्यक्ष कुशाभाऊ ठाकरे की छवि आंखों के सामने आ जाती है. 

सभ्रांत किसान जैसे दिखने वाले ठाकरे अपनी तपस्वी जैसी जीवन शैली के लिए जाने जाते थे. संघ के ज्यादातर प्रचारकों की तरह ठाकरे भी आजीवन कुंवारे रहे.

अस्सी के दशक की शुरुआत में जब मेरी उनसे पहली मुलाक़ात हुई तो वे पुराने भोपाल के सोमवारा इलाके में पार्टी ऑफिस के नीचे एक कमरे में रहते थे. 

कमरे के एक कोने में एक तख़्त पर उनका बिस्तर था, एक मेज थी और आगंतुकों के लिए चंद कुर्सियां. एक घड़ा भी था, जिससे निकालकर आप पानी पी सकते थे. 

वह छोटा कमरा उनका शयन कक्ष था, ड्राइंग रूम था, अध्ययन कक्ष था, डाइनिंग रूम था और गेस्ट रूम था.

कभी-कभार जब वे लंच पर मुझे आमंत्रित करते तो बगल के हिस्से में रहने वाले कार्यालय मंत्री कैलाश सारंग के घर से थाली आ जाती थी. 

पहले तो सीलिंग फैन भी नहीं था. एक ही टेबल फैन था जिसे सारंगजी का परिवार इस्तेमाल करता था और कभी कोई आगंतुक आ जाये तो उसकी हवा ठाकरेजी की तरफ मोड दी जाती थी. 

यह उस प्रभावशाली नेता की जीवन शैली थी जो मुख्यमंत्री बनाने या हटाने की ताकत रखता था.

इसलिए जब संघ परिवार के एक चमकते हुए सितारे, एकनाथ गोरे से भोपाल में मेरी पहली मुलाक़ात हुई तो मैं सकते में आ गया. 

नब्बे के दशक के शुरुआती दिनों की बात है. मैं भोपाल के होटल निसर्ग में भूतपूर्व मुख्यमंत्री वीरेंद्र कुमार सखलेचा से मिलने गया था. उनका दफ्तर होटल के पीछे की तरफ था. 

हमने बैठ कर बतियाना शुरू ही किया था कि कमरे के दरवाजा खुला और अपनी जानी-पहचानी फौजी ड्रेस में छत्तीसगढ़ के भाजपा नेता दिलीप सिंह जूदेव अन्दर घुसे.  


जशपुर राजघराने के वारिस जूदेव अपने इन्द्रधनुषी व्यक्तित्व और ईसाई मिशनरियों के खिलाफ चल रहे आन्दोलन के लिए सुर्ख़ियों में बने रहते थे. ईसाई आदिवासियों को फिर से हिन्दू बनाने के ‘घर वापसी’ अभियान के सिलसिले में मैं  उनसे पहले ही मिल चुका था. 

उनके पीछे-पीछे नाटे कद के एक और सज्जन थे, जिन्हें देखकर सखलेचा खड़े हो गए और हाथ जोड़कर प्रणाम किया. 

जूदेव ने मेरा परिचय कराते हुए कहा, “ये मेरे गुरु हैं, एकनाथ गोरे जी जो जशपुर में वनवासी कल्याण आश्रम चलाते हैं.” यह आश्रम आरएसएस का एक प्रकल्प है.

हमलोग चाय पी रहे थे. सखलेचा ने नए आगंतुकों के लिए भी चाय का आर्डर दिया. पर उनकी बात बीच में ही काटते हुए गोरे ने कहा कि वे चाय नहीं पियेंगे.

“क्या लेंगे,” सखलेचा ने बड़े सम्मान के साथ पूछा.

“मैं सामान साथ लेकर चलता हूँ,” मेहमान ने अपने हाथ के झोले की तरफ इशारा किया, “एक गिलास और पानी मंगा दो.”

गोरे हाथ में पकड़ने वाला कपडे का एक छोटा झोला लेकर चल रहे थे, जिसे मराठी में पिशवी कहा जाता है. 

जैसे ही ग्लास आया, उन्होंने झोले से ओल्ड मांक की एक बोतल निकाली, तसल्ली के साथ गिलास में उडेला और पानी मिलाने के बाद एक घूँट लिया. 

गला तर होने के बाद वे पूरी तरह रिलैक्स दिख रहे थे. 

अपने कठोर अनुशासन के लिए जाने जाने वाले कड़क स्वभाव के जैनी आचार-विचार वाले सखलेचा निशब्द थे.

उस समय घडी में सुबह के ११ बज रहे थे.


आधी रात की मुलाक़ात


कई वजहों से इस घटना के पात्रों के नाम लिखने से परहेज़ कर रहा हूँ. इसके मुख्य पात्र भी आरएसएस के एक भूतपूर्व प्रचारक थे, भाजपा के एक कद्दावर नेता जिन्होंने आगे चलकर एक बड़ा ओहदा हासिल किया. 

उनके रूखे और मुंहफट स्वभाव की वजह से पार्टी के ज्यादातर नेता उनसे डरते थे. थे तो कुंवारे, पर एक सांसद के नाते वे दिल्ली में एक विशाल सरकारी बंगले में रहते थे.


१९९५ में भाजपा के अधिवेशन की कवरेज के लिए मैं बम्बई गया हुआ था. सवा लाख से भी ज्यादा डेलिगेट आये थे और उन्हें ठहराने के लिए टेंटों की एक सर्व सुविधायुक्त नगरी का निर्माण किया गया था. 

सारे बड़े नेताओं को भी कहा गया था कि उन्हें अधिवेश स्थल पर ही रुकना है. पर कुछ नेता अपने काटेज छोड़कर रात को लापता हो जाते थे.


कवरेज़ के लिए बाहर से आये ज्यादातर पत्रकार पास के उन होटलों में रुके थे जहाँ भाजपा ने इंतजाम किया था. इंडिया टुडे ने मुझे ताज ग्रुप के होटल प्रेसिडेंट में रुकवाया था. 

दोस्तों के साथ एक डिनर के बाद मैं रात लगभग साढ़े बारह बजे होटल वापस आया. लिफ्ट का दरवाजा खुला तो उसमें पहले से दो पेसेंज़र सवार थे. 

उनमें से एक वही कद्दावर नेता थे, जिनका परिचय मैं पहले दे चुका हूँ. लिफ्ट में दिल्ली भाजपा की एक जानी-मानी महिला नेता भी थीं. 

दोनों बम्बई अधिवेशन में भाग लेने आये थे और कायदे से उन्हें उस वक्त अपने टेंटों में होना चाहिए था.


मैं काम के सिलसिले में उन सांसद महोदय से दिल्ली में अक्सर मिलता रहता था. मैंने नमस्कार किया, उन्होंने सिर हिलाकर अभिवादन स्वीकार किया.


लिफ्ट रुकी. दोनों नेता बाहर निकले. संयोग ऐसा कि मेरा कमरा भी उसी फ्लोर पर था. मैं भी उनके पीछे-पीछे लिफ्ट से बाहर निकला. वे आगे-आगे, मैं पीछे-पीछे. हवा भारी हो चली थी.

एक कमरे के सामने वे रुके. महिला ने कमरा खोलने के लिए चाबी निकाली. मेरा कमरा कारीडोर में कुछ फीट आगे था. वहां पहुंचकर अपना दरवाजा खोलने के लिए मैं मुडा तो दोनों नेता अंतर्ध्यान हो चुके थे.


आधी रात की उस मुलाक़ात के बाद जब मैं दिल्ली लौट कर आया तो मेरी दुनिया बदल चुकी थी.


जब भी मैं उन कद्दावर नेता के बंगले पर जाता था तो मेरी खातिर एक वीआईपी जैसी होती थी, सूखे मेवे पेश किये जाते थे, अच्छी मिठाई आती थी, गरमा-गर्म चाय मिलती थी.

और साथ में गर्म ख़बरें भी.

Prajatantra 9 December 2018

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