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Resentment against hike in bus fare mounting in Bhopal

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NK SINGH Though a Govt. directive has frustrated the earlier efforts of the MPSRTC to increase the city bus fares by as much as 300 per cent, the public resent even the 25 per cent hike. It is "totally unjust, uncalled for and arbitrary", this is the consensus that has emerged from an opinion conducted by "Commoner" among a cross-section of politicians, public men, trade union leaders, and last but not least, the common bus travelling public. However, a section of the people held, that an average passenger would not grudge a slight pinche in his pocket provided the MPSRTC toned up its services. But far from being satisfactory, the MPSRTC-run city bus service in the capital is an endless tale of woe. Hours of long waiting, over-crowding people clinging to window panes frequent breakdowns, age-old fleet of buses, unimaginative routes and the attitude of passengers one can be patient only when he is sure to get into the next bus are some of the ills plaguing the city b...

जब कमल नाथ ने अर्जुन सिंह से हाथ मिलाकर दिग्विजय सिंह को सकते में डाला

Kamal Nath vs Digvijay: Friends turn foe


NK SINGH



यह वसंत का समय है और माहौल में रूमानियत है। कांग्रेस कार्यसमिति (सीडब्ल्यूसी) के सदस्य अर्जुन सिंह मध्य प्रदेश  के दूसरे ताकतवर कांग्रेसी नेता कमल नाथ से दोस्ती की पींगें बढ़ा रहे हैं। लेकिन इस नए संबंध के बनने से हर कोई खुश  नहीं है। खासकर, राज्य के मुख्यमंत्री दिग्विजय सिंह की तो त्यौरियां ही चढ़ गई होंगी।

दिग्विजय सिंह सचमुच परेशान हैं.  अपने दो सबसे ताकतवर विरोधियों --- अपने पूर्व ‘गुरू‘ अर्जुन सिंह और दोस्त से दुश्मन बने कमलनाथ ---  के हाथ मिला लेने से वे एक बार फिर घिर गए हैं। दिग्विजय के सामने भारी संकट है क्योंकि दिल्ली में ‘देवी के दरबार‘ में उनकी साख स्पष्ट रूप से बहुत गिर गई है।

लिहाजा, अर्जुन सिंह और कमलनाथ के बीच परवान चढ़ती यह दोस्ती प्रदेश के मुख्यमंत्री के लिए घातक साबित हो सकती है।

अभी एक साल पहले तक चुनाव बाद की लोकप्रियता लहर पर सवार दिग्विजय की स्थिति बेहद मजबूत लग रही थी। उनके विरोधी --- जिनकी कोई कमी नहीं थी ---- अलग-थलग पड़ गए थे। अपने मुख्यमंत्रित्व काल के पिछले छह वर्षों में वे अस्तित्व बचाए रखने की कला में माहिर खिलाड़ी के रूप में उभरें।

निःसंदेह, उन्हें जब भी लड़ने के लिए मजबूर किया गया, वे और भी ताकतवर होकर उभरे । उनसे जब भी उनकी राजनैतिक मजबूती के रहस्य के बारे में पूछा जाता है, वे कहते है, ‘‘ईश्वर दयालु रहा है।"

अलग-थलग पड़े दिग्विजय 

लेकिन इस बार परिस्थितियां दिग्विजय के काफी खिलाफ दिख रही हैं। वे अपने को राज्य की राजनीति में पूरी तरह से अलग-थलग पा रहे हैं । उनके खिलाफ सब लोग लामबंद हो गए हैं।

पूर्व मुख्यमंत्री अर्जुन पहला मौका पाते ही उन्हें गद्दी से हटाना चाहेंगे। लोकसभा में कांग्रेस के उप-नेता माधवराव सिंधिया दिग्विजय की राजनीति की शैली  से घृणा करते हैं।

पूर्व केंद्रीय मंत्री विद्याचरण शुक्ल का, जिन्हें लोकसभा चुनाव में टिकट देने से इनकार कर दिया गया, मानना है कि दिग्विजय ने ही उनकी पीठ में छुरा घोंपा ।

बगावत का झंडा उठाने वाले प्रदेश के पहले कांग्रेसी नेता, पूर्व उप-मुख्यमंत्री सुभाष यादव अपने चाकू पर सान चढ़ा रहे हैं। जाहिर है, दिग्विजय अकेले पड़ गए हैं।

‘बड़े भाई‘ कमलनाथ साथ देने वाले एकमात्र मित्र बचे थे। उन्होंने दिग्विजय का साथ अच्छी तरह निभाया और दिल्ली में उनके लिए जोड़तोड़ भी की। लेकिन लंबे समय से अपने मौके का इंतजार करते हुए वे इतने थक चुके थे कि पिछले हफ्ते सीधे टकराव की दिशा में आगे बढ़ते दिखे। यह खुला  रहस्य है कि वे अपने ‘छोटे भाई‘ को गद्दी से हटाकर खुद मुख्यमंत्री बनना चाहेंगे।

पिछले हफ्ते दिग्विजय को लिखे एक पत्र में  --- जिसका मजमून अखबारों को ‘लीक‘ कर दिया गया --- उन्होंने 1989 के बाद नियुक्त सभी दिहाड़ी कर्मचारियों की छंटनी के ‘तानाशाही भरे‘ फैसले के लिए दिग्विजय की सरकार को जमकर लताड़ा।

छिंदवाड़ा के सांसद कमलनाथ ने कहा, ‘‘ मैं इस कदम से पूरी तरह असहमत हूं।‘‘ उन्होंने दिग्विजय से कहा कि छंटनी किए गए 27,000 दिहाड़ी कर्मचारियों को न सिर्फ फिर से काम पर लिया जाए, बल्कि नियमित भी किया जाए। कमलनाथ ने कहा, ‘‘यह बेहद पीड़ाजनक है क्योंकि पिछड़ों और गरीबों के आर्थिक हितों की रक्षा करना कांग्रेस की परंपरा रही है।‘‘

इस फैसले के पीछे जब राज्य के आर्थिक संकट का हवाला दिया गया तो कमलनाथ ने तर्क दिया कि राज्य सरकार अपनी फिजूलखर्ची में कटौती करती तो इन कर्मचारियों को आसानी से काम पर रखा जा सकता था।

जिस राजनैतिक मंशा से यह पत्र लिखा गया था, उसके प्रभाव सामने आने भी लगे। छंटनी की आलोचना कर कमलनाथ न केवल प्रदेश सरकार के खिलाफ खुलकर सामने आ गए, बल्कि खुद को दिग्विजय सिंह से अलग भी कर लिया। अर्जुन से बढ़ती निकटता के इस दौर में इस बयान का जारी किया जाना काफी सनसनीखेज था।

अर्जुन  सिंह क्यों नाराज हैं दिग्विजय से 

अभी तक कमलनाथ राज्य की राजनीति में अलग-थलग दिख रहे थे। उनके एकमात्र साथी दिग्विजय सिंह थे। मुख्यमंत्री, सिंधिया और कमलनाथ एक-दूसरे को नापसंद करते हैं। शुक्ल बंधुओं  --- विद्याचरण और श्यामाचरण --- ने हमेशा  ‘नवोदित बाहरी व्यक्तियों‘ को तिरस्कार के भाव से देखा है।

अर्जुन ने 1993 में जब मुख्यमंत्री पद के लिए कमलनाथ का समर्थन करने से इनकार कर दिया था तो कमलनाथ उनसे अलग हो गए थे। लेकिन अपने स्वार्थ की खातिर दोनों ने एक बार फिर हाथ मिला लिया है।

अर्जुन ने जब पी.वी. नरसिंह राव के नेतृत्व वाली कांग्रेस पार्टी से नाता तोड़ा था तब दिग्विजय सिंह ने अपने इस पूर्व गुरू की मदद करने से इनकार कर दिया था। तब से अर्जुन का अपने जीवन में केवल एक लक्ष्य पूरा होने से रह गया है --- अपने पूर्व शिष्य को सत्ता से उखाड़ फेंकने का।

दूसरी तरफ, कमलनाथ गद्दी का इंतजार करते-करते थक गए हैं। दिल्ली में बैठे उनके रिमोट कंट्रोल की बैटरी चुकने लगी है। बटन दबाने पर वह हर बार काम नहीं करती।

लिहाजा, कमलनाथ ने अपनी ओर से पहल की और हाल में अर्जुन को छिंदवाड़ा आमंत्रित किया। इस तरह एक-दूसरे की मदद के लिए दोनों में सहमति बन गई। अर्जुन ने छिंदवाडा के विकास में कमलनाथ के योगदान की प्रशंषा की। बदले में कमलनाथ ने खुद को राजनीति में लाने के लिए अर्जुन के प्रति कृतज्ञता जताई।

दोस्त दोस्त ना रहा 

प्रदेश के दूसरे कांग्रेसी दिग्गज पहले से ही मुख्यमंत्री के खिलाफ हैं, लिहाजा अर्जुन और कमलनाथ के एकजुट हो जाने से परेशान दिग्विजय की मुश्किलें और बढ़ गई हैं। दिग्विजय खेमे की चिंता इस चैंकानेवाले तथ्य से चरम पर पहुंच गई है कि मुख्यमंत्री अचानक ही अपने को दिल्ली में मित्र-विहीन पा रहे हैं।

जिस शख्स  को हमेशा जोड़तोड़ और नए दौस्त बनाने के अपने कौशल पर गर्व रहा हो, उसके लिए यह बड़ा झटका है।

हाल के राज्यसभा चुनावों के दौरान यह एकदम स्पष्ट हो गया कि दिल्ली दरबार में दिग्विजय अलग-थलग पड़ गए हैं। चार कांग्रेस उम्मीदवारों में से किसी को भी दिग्विजय खेमे का नहीं कहा जा सकता।

दूसरी तरफ, उनके विरोधियों ने सोनिया गांधी के साथ अपनी निकटता का प्रदर्शन किया है। अर्जुन पार्टी उम्मीदवारों के नामों की अधिकृत घोषणा का इंतजार किए बिना ही अपना नामांकन दायर करने भोपाल पहुंच गए। इस तरह उन्होंने दिखा दिया कि 10 जनपथ मे उनकी खास  हैसियत है।

दूसरे उम्मीदवार भी मुख्यमंत्री के प्रभाव क्षेत्र से बाहर के हैं। पूर्व केंद्रीय मंत्री हंसराज भारद्वाज को सीधे पार्टी आलाकमान से टिकट मिला.

अखबारी दुनिया के दिग्गज प्रफुल्ल माहेश्वरी को अपने नामांकन में कमलनाथ और दूसरे नेताओं से मदद मिली। दरअसल, कुछ दिन पहले दिग्विजय ने माहेश्वरी  को उस सरकारी बंगले से निकालने के आदेश को मंजूरी दी थी, जो उन्हें आवंटित हुआ था।

चौथे उम्मीदवार भगतराम मनहर को शुक्ल का पुराना वफादार माना जाता है।

पुराने समर्थक चरणदास भी रूठे 

दिग्विजय  न केवल अपने किसी समर्थक को टिकट दिलाने में विफल रहे, बल्कि उन्होंने चुनाव के ऐन पहले एक दोस्त भी खो दिया है। उनके पुराने समर्थक चरणदास महंत उनके खिलाफ हो गए हैं। इसमें दरबारी दुरभिसंधियों और राजनैतिक वर्चस्व हासिल करने की कोशिश की मजेदार कहानी छिपी है।

दिल्ली दरबार में कांग्रेस प्रवक्ता अजित जोगी के बढ़ते महत्व को भापकर दिग्विजय ने राज्यसभा चुनावों के पहले अपने कट्टर दुश्मन से मेल-मिलाप की कोशिश की। खुद टिकट पाने में विफल रहने के बाद जोगी ने अपने एक समर्थक शिव कुमार डहरिया के लिए कोषिष की, जो राज्य की राजनीति में एक तरह से अनजान व्यक्ति हैं।

जोगी को खुश करने के मकसद से दिग्विजय ने डहरिया की उम्मीदवारी का समर्थन किया। इस नए गठजोड़ से महंत कुपित हो उठे । महंत भी जोगी की तरह ही छत्तीसगढ़ क्षेत्र के हैं। इस कांग्रेसी सांसद ने महसूस किया कि दिग्विजय ने जोगी से हाथ मिलाकर उनके साथ दगा किया है।

 महंत के एक करीबी ने कहा, ‘‘दिग्विजय को इस तरह का महत्वपूर्ण फैसला करने से पहले महंत और इस क्षेत्र के उनके समूह के अन्य नेताओं से सलाह-मशविरा कर लेना चाहिए था।‘‘

 क्रुद्ध महंत ने दिल्ली में भारी पैरवी और जोड़तोड़ की और अंतिम क्षण में डहरिया की उम्मीदवारी रद्द करवाने में सफल रहे। महंत ने दिग्विजय विरोधी अन्य ताकतों, खासकर शुक्ल बंधुओं से हाथ मिलाकर डहरिया की जगह भगतराम मनहर को उम्मीदवार बनवाया।

और अब एक सुनी-सुनाई कहानी। चूंकि दिग्विजय ने घाघ राजनीतिक होने की प्रतिष्ठा हासिल कर ली है, इसलिए न केवल उनके विरोधी बल्कि उनके मित्र भी उनसे सतर्क हैं।

जोगी का अब मानना है कि दिग्विजय ने उनकी पीठ में छुरा घोंपा और डहरिया की उम्मीदवारी रद्द करवाई। जोगी के एक वफादार कहते हैं, ‘‘दिग्गी राजा (दिग्विजय सिंह) का कोई विश्वास नहीं कर सकता।‘‘

राजनैतिक हलकों में इसी नाम से मशहूर दिग्विजय संकट में हैं। उन्होंने न केवल एक पुराने मित्र महंत को खो दिया है, बल्कि वे कोई नया दोस्त भी बनाने में विफल रहे हैं। जाहिर है, दिग्विजय के लिए आने वाले दिन मुसीबत भरे हैं।

India Today (Hindi) 5 April 2000

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