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Ordinance to restore Bhopal gas victims' property

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NK SINGH Bhopal: The Madhya Pradesh Government on Thursday promulgated an ordinance for the restoration of moveable property sold by some people while fleeing Bhopal in panic following the gas leakage. The ordinance covers any transaction made by a person residing within the limits of the municipal corporation of Bhopal and specifies the period of the transaction as December 3 to December 24, 1984,  Any person who sold the moveable property within the specified period for a consideration which he feels was not commensurate with the prevailing market price may apply to the competent authority to be appointed by the state Government for declaring the transaction of sale to be void.  The applicant will furnish in his application the name and address of the purchaser, details of the moveable property sold, consideration received, the date and place of sale and any other particular which may be required.  The competent authority, on receipt of such an application, will conduct...

साझेपन से बदली सूरतेहाल


How Jhabua averted ecological disaster


NK SINGH


निराशा के माहौल में भगीरथ प्रयासों के रूप में उम्मीद के कुछ दीये हैं जो गहन अंधकार को दूर भगाने का काम कर रहे हैं। ये प्रयास भले ही ऊंट के मुंह में जीरे के समान हैं, पर इस बात के संकेत हैं कि पहल और लगन के बूते किस तरह रूख में बदलाव लाने के साथ चमत्कार अंजाम दे सकते हैं।

ऐसा ही एक प्रयास पश्चिमी मध्य प्रदेश  के सूखा प्रभावित झाबुआ जिले में आकार ले रहा है। ‘60 के दशक की शुरूआत में झाबुआ में वन क्षेत्र 33 फीसदी था, जो अतिक्रमण के चलते ‘80 के दशक तक केवल 10 फीसदी रह गया। वन कटाव के चलते आदिवासियों ने पहाड़ों की बंजर ढलानों पर खेती शुरू कर दी, जिससे भूमि क्षरण बढ़ा।

पर्यावरणविद् अनिल अग्रवाल बताते हैं, ‘‘1985 में जब मैंने इस इलाके का दौरा किया तो मुझे लगा जैसे मैं चांद पर पहुंच गया हूं। इस हद तक वनों का कटाव हुआ कि पूछिए मत।" इसके अलावा, अनियंत्रित चराई, अवैध कटान और जंगलों की आग ने ऐसी पारिस्थितिकीय त्रासदी को जन्म दिया कि लोग वहां से पलायन करने लगे।

आज  झाबुआ का नजारा कुछ और ही है। पहाड़ों की चोटियां हरियाली से लद गई हैं और चारों ओर पेड़ उग आए हैं। यह 1995 में शुरू हुए एक सरकारी कार्यक्रम की बदौलत मुमकिन हो सका। इसके तहत जल संग्रहण और भू-जल संरक्षण से कई जगहों पर जलस्तर चढ़ने लगा। जिले में 1,000 से अधिक रोक बांध, 1050 तालाब और 1,100 सामुदायिक लिफ्ट सिंचाई योजनाएं स्थापित की गईं-इनमें कई की देखरेख स्वयंसेवी सेगठन करते हैं।

पिछले पांच साल में यहां अनाज की पैदावार में 38 फीसदी वृद्धि हुई है। कभी पशुओं का चारा तक बाहर से मंगाने वाला झाबुआ अब पड़ोसी राज्य गुजरात को चारा भेज रहा है। परियोजना के तहत शुरू रोजगार सृजन कार्यक्रमों के चलते आदिवासियों का पलायन भी रूका है।

झाबुआ का प्रयोग सफल कैसे हुआ?

इसे मुख्मंत्री दिग्विजय सिंह का तो समर्थन था ही, पहाड़ी इलाका होने के कारण जलग्रहण प्रबंधन के लिए यह आदर्श क्षेत्र था। और आदिवासी बहुत आबादी की वजह से उन्हें कार्यक्रम अपनाने के लिए समझाना आसान हो गया।

अब पर्यावरणवादी और योजनाकार दोनों जलग्रहण क्षेत्र प्रबंधन के झाबुआ माॅडल के मुरीद हो गए हैं। परती भूमि विकास विभाग के अतिरिक्त सचिव एस.बी. महापात्र दूसरी सरकारों को यह तरीका अपनाने की सिफारिष करते हुए कहते हैं, ‘‘इससे साबित होता हैं कि किसी सफल कार्यक्रम के लिए तगड़ी राजनैतिक इच्छाशक्ति, कृतसंकल्प प्रशासन और जन सहभागिता जरूरी है।‘‘

प्रकृति के प्रकोप के चलते होने वाले नुकासान को सीमित करने के ये सफल प्रयास इसके संकेत हैं कि सरकार और जनता अगर कंधे से कंधा मिलाकर काम करें तो भविष्य में क्या कुछ नहीं हासिल किया जा सकता।

 पानी की बचत

तीव्र ढलानों पर आर-पार या थोड़ी-थोड़ी दूरी पर खाइयां खोद दी जाती हैं और पत्थरों आदि से बांध बनाए जाते हैं। वहां चारागाह विकसित किए जाते हैं।

जलग्रहण क्षेत्र के बहाव वाले हिस्सों में खाइयां, रोक बांध, रिसाव वाले तालाब और बांध बनाए जाते हैं। वृक्षारोपण भी किया जाता है।

निचले हिस्सों में मिट्टी और पत्थर के बांध, रिसाव टैंक, जल अवशोषक और कृषि तालाब बनाए जाते हैं। कृषि वानिकी और फलों की खेती भी की जा सकती है।

इस तरह के उपायों से मिट्टी के साथ पानी का भी संरक्षण होता है। और इसके साथ ही वनों की स्वाभाविक वृद्धि संभव हो पाती हे। इस पूरी प्रक्रिया के फलस्वरूप जलस्तर में वृद्धि के साथ-साथ कृषि उपज भी बढ़ती है।

झाबुआ जिले में जलग्रहण क्षेत्र विकास
कार्यक्रम से पूर्व / कार्यक्रम के बाद 
पैदावार क्षेत्र : 76,382 / 1,16,939
सिंचित क्षेत्र : 3,033 / 6,353
वन क्षेत्र :  2,884 / 9,404
परती भूमि: 18,952 / 7,146
चारे से आय: 38 / 153
(आय लाख रूपये में छोड़ सभी आंकड़े हेक्टेयर में)


India Today (Hindi) 10 May 2000

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Comments

  1. अब मालवा रेगिस्तान बनने की कगार पर हैं वाणिज्यिक राजधानी इंदौर को जोड़ने वाली सभी हाई वेज फोर लेन से सिक्स लेन किए गए हैं सड़क केकिनारे लगे लाखों लाख पेड़ इनकी बली चढ़े ओर चढ़ते जा रहे हैं। आज हालत यह हैं इंदौर से देवास के बीच कोई बड़ा या छोटा पेड़ नही बचा जहां गाड़ी खड़ी कर कुछ देर रुका जाऐ ।नेशनल हाई वे का यह नियम की सड़क बनाने मे काटे गए एक पेड़ के बदले दस पेड़ लगाकर क॔म्पनी को देने होंगे यह यहाँ कहीं पर नहीं दिखता कुछ लोग अभी यहाँ मोजूद है जो यह बताते है कि हम देवास से सायकिल से इंदौर जाते हैं हर जगह भरपूर हरियाली व कुएँ थे । आज ऐसा कुछ नहीं बचा ।सच है विनाश मनुष्य खुद ही लाता हैं ।

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  2. अब मालवा रेगिस्तान बनने की कगार पर हैं वाणिज्यिक राजधानी इंदौर को जोड़ने वाली सभी हाई वेज फोर लेन से सिक्स लेन किए गए हैं सड़क केकिनारे लगे लाखों लाख पेड़ इनकी बली चढ़े ओर चढ़ते जा रहे हैं। आज हालत यह हैं इंदौर से देवास के बीच कोई बड़ा या छोटा पेड़ नही बचा जहां गाड़ी खड़ी कर कुछ देर रुका जाऐ ।नेशनल हाई वे का यह नियम की सड़क बनाने मे काटे गए एक पेड़ के बदले दस पेड़ लगाकर क॔म्पनी को देने होंगे यह यहाँ कहीं पर नहीं दिखता कुछ लोग अभी यहाँ मोजूद है जो यह बताते है कि हम देवास से सायकिल से इंदौर जाते हैं हर जगह भरपूर हरियाली व कुएँ थे । आज ऐसा कुछ नहीं बचा ।सच है विनाश मनुष्य खुद ही लाता हैं ।

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