Atal Government fell because it could not muster even one extra vote
NK SINGH
मुझे दूर का दिखाई देता है,
मैं दीवार पर लिखा पढ़ सकता हूं,
मगर हाथ की रेखाएं नहीं पढ़ सकता।
-अटल बिहारी वाजपेयी की 1993 में अपने जन्म दिवस पर लिखी कविता।
अगर राजनीति असंभव को संभव कर दिखाने की कला है तो भाजपा ने वस्तुतः ऐसा ही करने का प्रयास किया। एक भी अतिरिक्त सांसद को अपने पक्ष में कर पाने में विफल रहने से जाहिर हो गया कि पार्टी दीवार पर लिखी इबारत नहीं पढ़ पाई। वह यह समझने में असमर्थ रही कि दूसरी पार्टियों के सांसदों का समर्थन पाने के लिए उसका नया उदारवादी चेहरा किसी को नहीं लुभा पाएगा।
ग्यारहवीं लोकसभा के गणित के मद्देनजर -जिसके अंतर्गत भाजपा और उसके सहयोगिगयों के 194, संयुक्त मोर्चे के 180 तथा कांग्रेस एवं उसके सहयोगियों के 139 सदस्य हैं।-पार्टी ने जो विकल्प चुना वह ऐसा दांव था जिसके गंभीर परिणाम हो सकते थे। फिर, भाजपा ने सरकार बनाने का राष्ट्रपति का न्यौता आखिर क्यों कबूल कर लिया?
इसकी अधिकृत वजह यह बताई गई कि मौका न चूकने के लिए कार्यकर्ताओं की ओर से भारी दबाव था। बकौल भाजपा अध्यक्ष लालकृष्ण आडवाणी , ‘‘ऐसा माना गया कि इकलौती सबसे बड़ी पार्टी होने के नाते हमें जनादेष का आदर करना ही पड़ेगा।‘‘
पर पार्टी के अंदरूनी सूत्रों का कहना है कि 15 मई को जब वाजपेयी राष्ट्रपति भवन गए तो उन्हें मालूम था कि कांगेस कार्यकारिणी के प्रस्ताव के बावजूद पी.वी. नरसिंह राव ने संयुक्त मोर्चे को समर्थन की पेशकश नहीं की थी। अगर भाजपा सरकार बनाने के न्यौते को ठुकरा देती तो राष्ट्रपति दूसरी सबसे बड़ी पार्टी के नेता राव को निमंत्रण देने को बाध्य होते।
उधर संयुक्त मोर्चे के नेताओं में नेतृत्व के मुद्दे पर सहमति न हो पाने से भाजपा को लगा कि राव को एक बार और प्रधानमंत्री बनने से रोक पाना मुष्किल हो जाएगा।
दूसरे, पार्टी का मानना था कि भाजपा सरकार बनने से ऐसा ध्रुवीकरण होना अनिवार्य है, जिससे उसे अपने प्रतिद्वंद्वियों पर अवसरवादी होने का आरोप लगाने में मदद मिलेगी। पार्टी के महासचिव कुशाभाऊ ठाकरे ने कहा, ‘‘हम दिखाना चाहते थे कि हम बाकी पाटियों से अलग हैं।‘‘
सत्ता मे रहने के फायदे मिलेः‘ महत्वपूर्ण फाइलें और संवेदनषील सूचनाएं हाथ लग कईं। नौकरशाही सूत्रों का कहना है कि नए मंत्रियों की सूचनाओं तक पहुंच होते ही विभिन्न विभागों की फोटोकाॅपी मशीने चौबीसों घंटेे हरकत में रहीं। उनके मुताबिक, इन्हें बाद में अपने विरोधियों को परेशान करने के लिए इस्तेमाल किया जाएगा।
पार्टी नेता आश्वस्त थे कि नव-निर्वाचित सांसद जल्दी चुनाव से कतराएंगे। राजस्थान के भाजपा मुख्यमंत्री भैरों सिंह शेखावत कहते हैं, ‘‘कुछ क्षेत्रीय पार्टियों ने हमें वायदा किया था कि राष्ट्रपति से सरकार बनाने का निमंत्रण मिलते ही वे हमें समर्थन देंगी। पर बाद में वे मुकर गई।‘‘
बहरहाल शेखावत, जसवंत सिंह, प्रमोद महाजन, के.एन. गोविंदाचार्य, दिल्ली के पूर्व मुख्यमंत्री मदनलाल खुराना समेत वरिष्ठ नेताओं ने क्षेत्रीय पार्टियों को पटाने की भरपूर कोशिश की। फिल्म अभिनेता रजनीकांत पत्रकार चो रामास्वामी, समता पार्टी के नेता जाॅर्ज फर्नांडीस, अकाली नेता प्रकाश सिंह बादल और आंध्र प्रदेश के एक मीडिया दिग्गज जैसे मध्यस्थों ने इस प्रयास में उनकी मदद की।
जसवंत सिंह ने असम के प्रफुल्ल महंत, आंध्र प्रदेश के चंद्रबाबू नायडू और तमिलनाडू के एम.करूणानिधि सरीखे मुख्यमंत्रियों से संपर्क साधा, जबकि गैर-कांग्रेसी सांसदों से बेहतर संबंध रखने वाले और मिलनसार गोविंदाचार्य ने समर्थन के लिए अपने पुराने सूत्रों को टटोला.
वाजपेयी ने माना, ‘‘मैंने सोचा कि सरकार बनाने के बाद मैं राष्ट्रपति द्वारा निर्धारित अवधि के भीतर साझा न्यूनतम कार्यक्रम के आधार पर अन्य पार्टियों से समर्थन लेने की कोषिष करूंगा। मैंने कई नेताओं से बात की .... शुरु में मामला बनता दिखाई दिया।‘‘
इस मामले में कांगे्रस के पूर्व केंद्रीय मंत्री बूटा सिंह की भूमिका दिलचस्प है। हवाला कांड में फंसे इस पूर्व मंत्री ने खुद ही हिंदी क्षेत्र के एक वरिष्ठ भाजपा नेता से कुछ क्षेत्रीय पार्टियों का समर्थन जुटा देने की पेशकश की। उन्होंने भाजपा की ओर से सौदेबाजी के लिए जी.के. मूपनार, चंद्रबाबू नायडू के अलावा असम गण परिषद के नेताओं से संपर्क साधा।
इसके साथ ही शेखावत ने बूटा सिंह से भाजपा में शामिल होने की बात की। एक वक्त तो भाजपा नेतृत्व उन्हें भाजपा का उपाध्यक्ष बनाने की सोचने लगा था। हालांकि वाजपेयी सांसदों की खरीद-फरोख्त के खिलाफ थे लेकिन प्रमोद महाजन जैसे नेताओं को इससे परहेज नहीं था।
बूटा सिंह के जरिए एक क्षेत्रीय पार्टी के पांच सांसद एक प्रमुख भाजपा सांसद से मिले भी। इस दौरान सीधे पैसे की तो बातचीत नहीं हुई लेकिन सांसदों ने कांगेस के एक पराजित सांसद के जरिए पैसे का जिक्र किया था।
पर पार्टी में सभी इन हरकतों से सहमत नहीं थे। कुछ सांसदों ने तो राष्ट्रपति के अभिभाषण में पार्टी के कई महत्वपूर्ण मुद्दों को न पाकर आवाज भी ऊंची कर दी थी। विश्वास मत से दो दिन पहले भाजपा ने उन्हें मनाने के लिए आनन-फानन मे एक बैठक आयोजित की। समस्याएं और भी थीं। उमा भारती सरीखे कुछ पिछड़े सांसद वाजपेयी सरकार में ब्राह्मणों के प्रभुत्व से खार खाए बैठे थे।
भाजपा के सारे समीकरण धरे रह गए। 27 मार्च की सुबह आते-आते, जब लोकसभा में विश्वास मत की कार्यवाही शुरू होनी थी और यह स्पष्ट हो चुका था कि सरकार अब जाने ही वाली है, पार्टी ने अपनी चाल बदल दी। शेखावत कहते हैं, ‘‘हम लोगों को बताना चाहते थे कि हिंदुत्व के मुद्दे पर कैसे दूसरों (दलों) ने हमारे विरूद्ध गिरोहबंदी कर ली।‘‘
कांग्रेस की दया पर निर्भर ढीलेढाले गठबंधन के सत्ताहीन होने की संभावना के मद्देनजर भाजपा ने मध्यावधि चुनाव की तैयारी शुरू कर दी है। वह वाजपेयी सरीखे सौम्य राजनेता के नेतृत्व वाली एकजुट भाजपा और देवेगौड़ा के नेतृत्व वाले विभिन्न गुटों में बंटे, विरोधाभासों वाले संयुक्त मोर्चे की तुलना करके ज्यादा से ज्यादा फायदा पाना चाहती है। जैसा कि वाजपेयी ने संसद में बहस के दौरान कहा, ‘‘संयुक्त मोर्चे की चौथी पसंद देश की पहली पसंद बनने जा रही है।‘‘
देश के आठ राज्यों के 350 लोकसभा क्षेत्रों में भाजपा का आधार होने से पार्टी का मानना है कि अब उसकी किस्मत और चमकेगी। पार्टी को उम्मीद है कि जब भी चुनाव होंगे उत्तर प्रदेश, बिहार, हरियाणा, महाराष्ट्र, गुजरात और मध्यप्रदेश में उसकी हालत बेहतर होगी।
लेकिन विश्वास मत के आखिरी दिन वाजपेयी बुरी तरह से टूट चुके थे। उन्होंने सुबह से कुछ नहीं खाया था। लोकसभा में भोजनावकाश रद्द हो गया तो वे एकाध सैंडविच और सूप के लिए बाहर आए। उनकी दत्तक पुत्री ने भाजपा की महिला सांसद के जरिए उन्हें सैंडविच चखाने के लिए मनाया। लेकिन वे इस कदर परेषान थे कि सैंडविच मुंह में डालते समय उनके कुर्ते पर बिखर गया, पर उन्हें इसका एहसास नहीं हुआ।
फिर भी लोकसभा में वाजपेयी के शानदान प्रदर्षन --- पार्टी इस बहस के वीडियो और आॅडियो कैसेट देश भर में बंटवाना चाहती है --- और भाजपा के पक्ष में उभरे जनसमर्थन से इसके वरिष्ठ नेताओं को यकीन हो गया है कि वे संसद में अपनी हार को जीत में बदल सकते हैं। संसद के रह-रहकर उग्र होते माहौल को टेलीविजन कैमरों ने लाखों घरों तक पहुंचाया जिसमें वाजपेयी की छवि एक शहीद राजनेता की बन गई। भाजपा नेताओं को विश्वास है कि अगले चुनाव में जीत की ओर यह महत्वपूर्ण कदम है।
बातचीत ■ अटल बिहारी वाजपेयी
‘‘हम मजबूत होकर उभरे हैं"
अटल बिहारी वाजपेयी भले ही मात्र 13 दिनों में पद छोड़ने पर बाध्य हुए हों, पर प्रधानमंत्री पद से वे ऐसे ठाठ से विदा हुए कि बहुतों के दिलों में छाप छोड़ गए। इस्तीफा देने के एक दिन बाद उन्होंने विषेष संवाददाता नरेंद्र कुमार सिंह से बातचीत में भाजपा के महत्वाकांक्षी दांव की वजहें गिनाईं। कुछ अंश:
भाजपा सरकार जल्दी ही गिरने से क्या कार्यकर्ता हतोत्साहित हुए हैं?
नहीं इससे उनके इरादे और मजबूत हुए हैं। हमें पता था कि हमारे पास पर्याप्त सांसद नहीं है। इसलिए हमें कोई आश्चर्य नहीं हुआ।
एक बार आपने कहा था कि करीब 220-225 सीट मिलने पर ही सरकार बनाएंगे फिर आपने इरादा क्यों बदला?
कुछ नेताओं का मानना था कि हमें सरकार नहीं बनानी चाहिए थी। पर दूसरे कुछ लोगों का मानना था कि हमें जिम्मेदारी से भागना नहीं चाहिए।
सबको मालूम था कि आपके पास बहुमत नहीं है। आप किस पर भरोसा कर रहे थे?
जब राष्ट्रपति ने मुझे सरकार बनाने के लिए आमंत्रित किया तब राजनैतिक स्थिति अस्थिर थी। क्षेत्रीय पार्टियों ने विकल्प खुले छोड़ रखे थे। जनादेश के मद्देनजर हम साझा न्यूनतम कार्यक्रम के आधार पर क्षेत्रीय पार्टियों की मदद से सरकार बनाने की ईमानदारी से कोशिश करना चाहते थे।
क्या आप इन पार्टियों के भाजपा को बाहर करने के इरादे से चकित हुए?
हमने कांग्रेस को कभी अपना संभावित सहयोगी नहीं समझा। इसलिए किसी भी पार्टी को समर्थन देने का उसका फैसला हमारे लिए अहमियत नहीं रखता था। हां, हमें यह उम्मीद नहीं थी कि परस्पर विरोधी ताकतें एक हो जाएंगी। पर उसका मकसद हमें राज करने से रोकना था, भले ही उन्हें अपने सिद्धांतों को तिलांजलि देनी पड़े।
क्या आप मानते हैं कि यह आत्मघाती दांव था?
मुझे यकीन है कि विनाश की भविष्यवाणी करने वाले गलत साबित होंगे।
कहा जाता है कि स्पष्ट बहुमत के बिना सरकार बनाकर भाजपा ने सत्ता के प्रति अपनी भूख ही उजागर की है। आरोप है कि आपने ऐसे गुटों को फुसलाने की कोशिश की, जिन्होंने पहले ही देवेगौड़ा को समर्थन देने का फैसला कर लिया था।
नए गठजोड में उभरे महत्वपूर्ण नेता दुमुक के मुरासोली मारन ने संसद में कहा है कि भाजपा ने कभी सूटकेस की राजनीति नहीं की । साझा न्यूनतम कार्यक्रम के आधार पर विभिन्न क्षेत्रीय पार्टियों से समर्थन मांगन बिल्कुल जायज था।
पद पर बने रहने की खातिर आप अयोध्या में राम मंदिर, कश्मीर में अनुच्छेद 370 की समाप्ति और समान नागरिक संहिता जैसे विवादास्पद मुद्दो को ठंडे बस्ते में डालकर समझौते करने को तत्पर लगे।
समझौते का सवाल ही नहीं उठता। जनादेश स्पष्ट रूप् से कांग्रेस के खिलाफ था और राम मंदिर, अनुच्छेद 370 या समान नागरिक संहिता पर कई पार्टियों की राय हमसे अलग होने के बावजूद हम उनसे गठबंधन का प्रयास कर रहे थे।
आपने संयुक्त मोर्चे को तो सिद्धांतहीन गठबंधन कहा है, पर भाजपा और अकाली दल में क्या समानताएं हैं?
भाजपा और अकाली दल पहले भी सहयोगी रहे हैं। पर कांगे्रस ने माकपा, द्रमुक-टीएमसी और तेलुगु देशम से अब जो संबंध स्थापित किया है, वह इससे एकदम अलग है। इन पार्टियों ने कांग्रेस के कुशासन को खत्म करने का वादा किया था। पर अब उनमें से कुछ उसी पार्टी की मदद से सत्ता में आ रही हैं।
आपकी सरकार शुरू में ही हंसी का पात्र बनी, सिंकदर बख्त इसलिए नाराज हुए कि उन्हें नगर विकास जैसा कम महत्वपूर्ण मंत्रालय मिला।
मैं समझता हूं कि मेरी सरकार इतनी अल्पकालीन रहीं कि किसी भी शख्स के लिए मेरे सहयोगियिों के बारे में मूल्यपरक फैसला सुनना संभव नहीं।
आप जानते थे कि आपकी सरकार नहीं टिकेगी, फिर भी आपने श्रीकृष्ण आयोग के पुनर्गठन, एनराॅन बिजली परियोजना को दी गई प्रति गारंटी को फिर से मंजूरी जैसे कुछ महत्वपूर्ण फैसले कर डाले।
मेरी सरकार कामचलाऊ नहीं थी। फिर भी हमने नौकरशाही में कोई फेरबदल नहीं किया अथवा नीति संबंधी कोई प्रमुख फैसला नहीं किया। राय अलग होने के बावजूद हमने जम्मू-कश्मीर मे चुनाव कराने के पिछली सरकार के फैसले को बहाल रखा। महाराष्ट्र सरकार ने श्रीकृष्ण आयोग को जब भंग किया था, मैंने तभी अपनी अलग राय व्यक्त की थी। अगर हम दाभोल पाॅवर कंपनी को दी गई प्रति गारंटी को फिर से मंजूरी न देते तो वह मुकदमा कर देती। समझ नहीं आता कि मेरी स्वर्ण मंदिर यात्रा को कैसे नीति संबंधी महत्वपूर्ण फैसला माना जा सकता है।
आपने हमेशा आम सहमति की राजनीति की वकालत की है। आप अपने उत्तराधिकारी से किस तरह के संबंध रखेंगे?
वैसे ही जैसे किसी स्वस्थ लोकतंत्र में विपक्ष का नेता प्रधानमंत्री से रखता है।
India Today (Hindi) 15 June 1996
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