BJP in search of regional allies
NK SINGH
अटल बिहारी वाजपेयी के नेतृत्व वाली भाजपा सरकार केंद्र में भले ही सबसे कम अवधि वाली सरकार रही हो, पर महज 13 दिनों के भीतर इसके गिरने से पार्टी के नेताओं को एक सबक मिल गया लगता है।
वह यह कि अगर पार्टी वाकई अगली बार सत्ता में आना चाहती है तो उसे छोटी-मोटी क्षेत्रीय ताकतों को साथ लेना ही पड़ेगा।
भाजपा में यह एहसास भी जागा है कि पार्टी को उन इलाकों में अपनी पैठ बनानी होगी जो अब तक उसकी पहुँच से बाहर रहे हैं।
केंद्र में भाजपा सरकार के संक्षिप्त कार्यकाल के बाद पहली बार भोपाल में 21 से 23 जून तक पार्टी की राष्ट्रीय कार्यकारिणी की तीन दिवसीय बैठक में यही संदेश उभरा।
सहयोगी तलाशने का उसका यह फैसला कोई आश्चर्यजनक नहीं है।
इसकी एक वजह तो यह आम धारणा है कि भाजपा ने हिंदुत्व को हद से ज्यादा भुना लिया है। नतीजतन, उसके फायदे अब कम होते जा रहे हैं। इसकी झलक विहिप के गो-रक्षा अभियान सरीखे नाकाम कार्यक्रमों से मिलती है।
दूसरे, यह एहसास भी है कि भाजपा सरकार का पतन ‘‘बहुत अलग-थलग पड़ जाने‘‘ के चलते हुआ। उसके नेताओं ने पाया कि समझौते की पहल के बावजूद उन्हें वांछित बहुमत दिला सकने वाली क्षेत्रीय और छोटी पार्टियों में शायद ही कोई उनके ‘‘सांस्कृतिक राष्ट्रवाद‘‘ से सहमत थी। एक पार्टी सदस्य ने कहा भी, ‘‘राजनैतिक तौर पर अछूत न रहकर ही भाजपा सत्ता हासिल कर सकती है।‘‘
पार्टी प्रमुख लालकृष्ण आडवाणी ने भी भोपाल में स्वीकार किया, ‘‘भाजपा की विकास दर शायद कांग्रेस की पतन दर के बराबर नहीं हो पा रही।‘‘ तो फिर पार्टी अपना विस्तार कैसे करे कि 11वीं लोकसभा में मिली 161 से ज्यादा सीटें हासिल कर ले?
आडवाणी ने उस समय तर्क को ताक पर रख दिया था जब उन्होंने कहा था कि भाजपा को जनादेश मिला है। पार्टी ने महज 20 फीसदी वोट पाए थे और उसे लगभग सारी सीटें उत्तरी और पश्चिमी राज्यों में ही मिली थीं। दक्षिण और पूर्व में, जहां लगभग 200 सीटें हैं, उसे महज सात सीटें मिल पाई।
भाजपा के ज्यादातर नेता मानते हैं कि जब तक पार्टी अकेली लड़ती रहेगी, केंद्र में सत्ता पाने का उसका सपना साकार नहीं होगा। हालांकि पार्टी का एक मुखर वर्ग गठबंधन का सख्त विरोधी है। एक नेता के मुताबिक, ‘‘गठबंधन का सीधा मतलब है अपने दृष्टिकोण में नरमी लाना और हम इसके खिलाफ हैं।‘‘
पर हाल के चुनाव में महाराष्ट्र, बिहार और हरियाणा में क्रमशः शिवसेना, समता पार्टी और हरियाणा विकास पार्टी के साथ गठबंधन से इन राज्यों में उनकी सीटें 10 से बढ़कर 40 हो गई । ऐसे में अचरज नहीं कि पार्टी ने खास तौर से अपने पश्चिमी और उत्तरी गढ़ों के बाहर साझेदारों की शिद्दत से तलाश शुरू कर दी है।
भोपाल की बैठक में चार स्तरीय रणनीति बनाई गई, जिसके अंतर्गत पार्टी का सामाजिक आधार व्यापक बनाना, साझीदारों की मदद से अन्य इलाकों में संभावनाएं तलाशना, हिंदुत्व पर नरम रूख अख्तियार करना और संयुक्त मोर्चे की विभिन्न पार्टियों के बीच विरोधाभासों का भंडाफोड़ करना शामिल है।
पार्टी का फौरी लक्ष्य उत्तर प्रदेश होने के कारण, जहां विधानसभा चुनाव अक्तूबर तक होने हैं, उसने 13 जुलाई को नई दिल्ली में राज्य इकाई की बैठक बुलाई है।
जिन इलाकोें में पार्टी अभी तक नहीं पहुंची है, वहां विस्तार की खातिर वाजपेयी और आडवाणी जैसे नेताओं के व्यापक कार्यक्रम रखे गये हैं। 20 और 21 जुलाई को कलकत्ता में पूर्वी क्षेत्र की राज्य इकाइयों की विषेष बैठकें होंगी और दक्षिण क्षेत्र की राज्य इकाइयों की बैठकें 27 और 28 जुलाई को बंगलूर में होंगी।
आडवाणी के शब्दों में कांग्रेस का ‘‘अंत करीब होने‘‘ और संयुक्त मोर्चे के पंचमेल खिचड़ी होने से भाजपा के लिए प्रचुर संभावनाएं दिखती हैं। इसलिए सुत्रों का कहना है कि गठबंधन की संभावनाओं के मद्देनजर भाजपा तेलुगुदेशम, द्रमुक और यहां तक कि अन्ना द्रमुक को भी नाराज नहीं करेगी।
यह बात उस समय स्पष्ट हो गई जब भाजपा नेताओं ने भ्रष्टाचार के आरोपों में राव पर तो तीखा हमला बोला, पर अन्ना द्रमुक प्रमुख जे.जयललिता से संबंधित घोटालों का जिक्र तक नहीं किया। हालांकि भाजपा नेता स्वीकार करते हैं कि फिलहाल पार्टी का क्षेत्रीय और सामाजिक आधार सीमित है, लेकिन इसे विस्तृत करने का काम शुरू हो गया है।
India Today (Hindi) 15 July 1996
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