NK's Post

Resentment against hike in bus fare mounting in Bhopal

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NK SINGH Though a Govt. directive has frustrated the earlier efforts of the MPSRTC to increase the city bus fares by as much as 300 per cent, the public resent even the 25 per cent hike. It is "totally unjust, uncalled for and arbitrary", this is the consensus that has emerged from an opinion conducted by "Commoner" among a cross-section of politicians, public men, trade union leaders, and last but not least, the common bus travelling public. However, a section of the people held, that an average passenger would not grudge a slight pinche in his pocket provided the MPSRTC toned up its services. But far from being satisfactory, the MPSRTC-run city bus service in the capital is an endless tale of woe. Hours of long waiting, over-crowding people clinging to window panes frequent breakdowns, age-old fleet of buses, unimaginative routes and the attitude of passengers one can be patient only when he is sure to get into the next bus are some of the ills plaguing the city b...

नहीं छूटेगी राम नाम की टेक

भाजपा हिंदुत्व का अभियान जारी रखेगी लेकिन अनुसूचित जाति-जनजाति और पिछड़े वर्गाें की भागीदारी भी बढ़ाएगी

युवराज घिमिरे के साथ दिलीप अवस्थी लखनऊ में और नरेंद्र कुमार सिंह भोपाल तथा जयपुर में



वे जैसे थे वैसे ही रहेंगे, बल्कि पुराने तेवर की धार अब और पैनी करेंगे। भाजपा में चुनावी पराजय की समीक्षा से कम-से-कम यही संकेत मिलता है। पार्टी ने तय कर लिया है कि राम जन्मभूमि मुद्दे को केंद्र में रखकर वह अपना हिंदुत्व का अभियान चलाती रहेगी।

हां, इस नीति में जरा-सा बदलाव यह होगा कि पार्टी अपने अभियान में अनुसूचित जाति-जनजाति और पिछड़े वर्ग की सहभागीता को और व्यापक करने की कोशिश करेगी।

और संघ परिवार के संदर्भ में इस फैसले का मतलब है कि उग्रपंथियों का कब्जा बरकरार है और बाहर से समर्थन दे रहे साधु-संत तथा विश्व हिंदू परिषद आगे की दिशा तय करते रहेंगे।

इस बीच राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के नागपुर मुख्यालय ने निजी तौर पर उत्तर में भाजपा की हार के लिए ‘‘दोषपूर्ण चुनाव प्रणाली और पहले हिंदुओं तथा फिर दलितों को समाप्त करने की मंषा से मुसलमान कठमुल्लों द्वारा दलितों को अपनी तरफ, आकर्षित करने में मिली अस्थायी सफलता‘‘ को कारण बताया है। लेकिन संघ ने यह बात सार्वजनिक तौर पर नहीं कही है।

स्पष्ट है कि उत्तर प्रदेश के मतदाताओं में 20 फीसदी हिस्सेदारी वाले दलितों का बहुमत बसपा की ओर जिस तरह मुड़ा है, उसे संघ परिवार ने गंभीरता से लिया है। लेकिन इसके लिए संघ के कर्ताधर्ता भाजपा सरकारों के खराब प्रदर्शन और उम्मीदवारों के गलत चयन को ज्यादा दोषी मानते हैं।

संघ की औपचारिक प्रतिक्रिया अपने राजनैतिक संगठन भाजपा के माध्यम से ही आएगी, जो 18 दिसंबर को चुनाव परिणामों की समीक्षा के लिए अपनी राष्ट्रीय कार्यकारिणी की बैठक कर रही है।

लेकिन अभी तक मिलने वाले सारे संकेत यही बताते हैं कि हिंदुत्व और राम मंदिर के सवाल को ज्यादा महत्व दिया जाएगा। दरअसल, पार्टी का एक समूह सामाजिक-आर्थिक मामलों को ज्यादा महत्व दिलाने और पार्टी की उग्र हिंदूवादी छवि को कुछ नरम बनाने की कोशिश कर रहा था।

लेकिन 5 दिसंबर को दीनदयाल शोध संस्थान की तरफ से आयोजित बैठक में इस प्रयास को दबा दिया गया। बैठक में ‘हम‘ और ‘वे‘ के इर्द गिर्द सारी बातचीत हुइ। ‘वे‘ का मतलब था मुसलमान। निष्कर्ष यह था कि मुसलमान को मनाने के लिए हिंदुत्व के नारे में कोई नरमी नहीं लाई जानी चाहिए।

इस नए रूख से पिछली रणनीति को उलट दिया गया है। ढांचा ढहने के बाद मुसलमानों को इस बात का भरोसा दिलाने की रणनीति अपनाई गई थी कि कांग्रेस और दूसरी पार्टियों के विपरीत भाजपा उनके सामाजिक-आर्थिक उत्थान के प्रति गंभीर है। इस रणनीति का मकसद था --- टूट चुके अल्पसंख्यक समुदाय को अपनी ओर खींचना।

उग्र हिंदुत्व वाली लाइन को ही जारी रखना उत्तर प्रदेश और मध्य प्रदेश की पस्तहाल इकाइयों को नया दम देने के लिए जरूरी माना जा रहा है। पार्टी के विचारकों की निश्चित मान्यता है कि पुरानी हिंदूवादी और राम मंदिर वाली नीति को ही जारी रखकर कार्यकर्ताओं और दूसरों को भी यह सन्देश दिया जा सकता है कि हाल के चुनावों में मिले वोटों के प्रतिशत को देखते हुए भाजपा अब भारतीय राजनीति का एक मुख्य अंग है।

इससे राज्य इकाइयों में व्याप्त नाराजगी को भी दबाया जा सकता है। पार्टी का मानना है कि उसे औसत 34.16 फीसदी हिंदू वोट मिले हैं और उत्तर प्रदेश में उसे 40 फीसदी वोट प्राप्त हुए हैं। पार्टी की रणनीति बनाने वालों का मानना है कि इतने वोट मिलने का स्पष्ट अर्थ है कि मंदिर के मुद्दे पर पुरानी रणनीति ठुकराई नहीं गई है।

दीनदयाल शोध संस्थान वाली बैठक का विशेष महत्व है क्योंकि चुनाव परिणामों के बारे में संघ परिवार की यह पहली अनौपचारिक बैठक थी। इसमें संघ के प्रमुख नेता के. सुदर्शन भी थे।

आलोचना का मुख्य मुद्दा यही था कि साधुओं और विश्व हिंदू परिषद के लोगों को चुनाव अभियान से अलग रखना भूल थी। पार्टी मंचों से इसके अध्यक्ष लालकुष्ण आडवाणाी जैसे नेता उत्तर प्रदेश में पार्टी के हार का कारण कांगे्रस और जनता दल का सफाया हो जाना बताते हैं।

फिर भी पार्टी महासचिव के.एन. गोविंदाचार्य की अगुआई में भाजपा का एक छोटा लेकिन प्रभावशाली समूह पार्टी को धीरे-धीरे एक मुद्दे से हटाकर उसे ज्यादा व्यापक राजनैतिक छवि देने की जरूरत बता रहा है। गोविंदाचार्य ने माना भी कि उत्तर प्रदेश और मध्य प्रदेश में पार्टी को मुख्यतः इन्हीं कारणों से पराजित होना पड़ा है।

उनका सुझाव है कि पार्टी को मंदिर आंदोलन से जुड़े बड़े मुद्दों को प्रमुखता देते हुए स्पष्ट सामाजिक -आर्थिक तथा विदेश नीति के जरिए रामराज्य की अवधारणा विकसित करनी चाहिए।

लेकिन चुनाव से जुड़ी अन्य घटनाएं उन जैसों के प्रयास पर पानी फेर सकती हैं। भाजपा की राजनीति का केंद्र अब भी अयोध्या से जुड़ी घटनाएं ही हैं।

बाबरी मस्जिद गिराने के मामले में 7 दिसंबर को आडवाणी और मुरली मनोहर जोशी जैसे नेताओं की गिरफ्तारी हो या गृह मंत्री शंकरराव चव्हाण द्वारा मस्जिद निर्माण संबंधी प्रधानमंत्री की घोषणा से इनकार करना हो या फिर कांशीराम की यह घोषणा कि उत्तर प्रदेश सरकार की प्राथमिकता शौचालय बनवाना होगी न कि मंदिर-मस्जिद बनवाना, इन सबसे अयोध्या का सवाल ही ज्यादा प्रमुख हुआ है और भाजपा भी इसी पर जोर देने के लिए मजबूर हुई है।

भाजपा ने गिरफ्तारी के विरोध में उत्तर प्रदेश, दिल्ली और अन्य जगहों पर बंद की जो अपील की उसके बहुत सफल न होने पर भी पार्टी इस लाइन को छोड़ नहीं सकती।

चुनाव के बाद भी संपूर्ण और स्पष्ट नई रणनीति अभी सामने नहीं आई है पर जिस नीति के संकेत मिल रहे हैं वह पार्टी के मझोले स्तर के नेताओं की आलोचना का शिकार बन रही हैै।

उत्तर  प्रदेशद में कल्याण सिंह और मध्य प्रदेश  में सुंदरलाल पटवा के प्रति काफी नाराजगी है। लेकिन लगता नहीं है कि संघ की कार्य शैली और उसका संगठन इस महत्वपूर्ण मौके पर ऐसे असंतोष को बर्दाश्त कर पाएगा।

अभी तक सिर्फ पटवा को ही पार्टी की पराजय के लिए फटकार लगाई गई है। अब वे मध्य प्रदेश विधानसभा में भाजपा विधायक दल के नेता नहीं बनाए जाएंगे। पूर्व सांसद धर्मपाल कहते हैं, ‘‘हम संगठनात्मक कमजोरियों और पटवा सरकार द्वारा शुरू  किए गए सभी कार्यक्रमों की असफलता के चलते हारे है।"

लेकिन पार्टी संभवतः मध्य प्रदेश, उत्तर प्रदेश और हिमाचल प्रदेश के भाजपा अध्यक्षों को नहीं हटाएगी क्योंकि उनका कार्यकाल अब एक साल ही रह गया है। पार्टी के एक वरिष्ठ महासचिव कहते हैं, ‘‘जहां तक कल्याण सिंह की बात है, पिछड़ी जाति से होने के कारण उन पर कोई आंच नहीं आई है।"

कल्याण सिंह ने तो पार्टी के नैतिकता वाले नजरिए को दरकिनार करते हुए प्रदेश में जनता दल तथा कांग्रेस में फूट डालकर सरकार बनाने का विचार भी शुरू कराया था। उनकी सरकार में मंत्री रहे एक नेता कहते हैं, ‘‘उनकी गतिविधियों ने जनता के मन में पार्टी की खराब छाप छोड़ी है और हमें अपनी छवि ठीक करने के लिए अलग से प्रयास करने होंगे।"

लेकिन जब तक आडवाणी के हाथ में बागडोर है तब तक कोई भारी उलटफेर नहीं होने वाला है क्योंकि ऐसा करने से पार्टी की एकता की छवि टूटेगी। आडवाणी जानते हैं कि प्रादेशिक नेताओं के खिलाफ कार्रवाई से खुद उनके नेतृत्व के प्रति विरोध बढ़ेगा और गुजरात, आंध्र प्रदेश, महाराष्ट्र, कर्नाटक और बिहार जैसे राज्यों में पार्टी कमजोर पड़ेगी जहां अगले 16 महीनों के अंदर ही चुनाव होने वाले है।

पार्टी चुनाव से पैदा हुई गड़बड़ियों को सार्वजनिक रूप से दूर करने का जोखिम मोल लेकर इन राज्यों में अपनी चुनावी संभावनाओं को धूमिल नहीं करना चाहती बल्कि इन राज्यों में अपनी स्थिति मजबूत करना चाहती है।

सो, अनुसूचित जातियों एवं जनजातियों और पिछड़े वर्गों में काम करने की रणनीति बनी है। पार्टी के महासचिव सुन्दर सिंह भंडारी कहते हैं, ‘‘हम बसपा के उदय को भांपने में असफल रहे और अब हमें उसके आधार में दखल देने के तरीके ढूढने  पड़ेंगे।"

दरअसल, राजस्थान और दिल्ली की नवगठित भाजपा सरकारों को इसी रणनीति पर अमल करने के विशेष निर्देश दिए गए हैं। संघ परिवार ने बाबरी मस्जिद के विध्वंस की बरसी पर 6 दिसंबर को जो ‘चेतना दिवस‘ मनाया उसमें बहुत सफलता भले ही न मिली हो पर इस कार्यक्रम में डाॅ. आंबेडकर को खासा महत्व देते हुए उन्हें हिंदू समाज का उद्धारक निरूपित किया गया। हर जगह उनका उल्लेख ध्यान देने लायक था।

पार्टी अपने प्रदेश संगठनों में कुछ दलितों को स्थान देने की योजना बना रही है। पार्टी का मानना है कि गैर-यादव पिछड़ों और गैर-चमार अनुसूचित जातियों में उसका आधार कमोवेश जस का तस है। इस पर मुलायम सिंह-कांशीराम गठजोड़ का असर नहीं पड़ा है।

स्पष्ट है कि इस गठबंधन की गांठें ढ़ीली करने के लिए संघ परिवार की एकमात्र आशा भाजपा और आरएसएस द्वारा दलित बस्तियों में अपने कल्याण कार्यक्रमों की गति तेज करने में ही निहित है।

जनता से ज्यादा घनिष्ठ रिश्ते बनाने को भी प्राथमिकता दी जा रही है क्योंकि पार्टी हिमाचल प्रदेश वाली स्थिति और जगहों पर नहीं लाना चाहती। यहां के पूर्व मुख्यमंत्री शांता कुमार ने केंद्रीय नेताओं को प्रदेश की 68 सीटों में से 37 जीतने का भरोसा दिया था। पर हिमाचल प्रदेश में पार्टी के सफाए या सिर्फ आठ स्थान मिलने का स्पष्ट मतलब है कि प्रदेष के नेताओं का जनता से रिश्ता टूट गया था।

दिल्ली में भाजपा को 15 से 20 ऐसी सीटों पर विजय मिली है जहां झुग्गी-झोपड़ियों और निम्न मध्यम वर्ग के लोगों का बहुमत है और इससे भाजपा को उम्मीद जगी है कि स्थितियां अनुकूल बनाई जाएं तो इस वर्ग का समर्थन भी मिल सकता है।

मध्यावधि चुनाव की नौबत लाने की मंशा पूरी न होती देख पार्टी ने हिंदुत्व की लहर तेज करने के लिए साधु-संतों को ग्रामीण इलाकों तक ले जाने की योजना बनाई है। इसका अर्थ होगा आगे और उग्र कार्यक्रम और प्रचार.

पर चुनाव के हिसाब से इस रणनीति के अपने खतरे हैं। राजस्थान में भाजपा के अपेक्षाकृत बेहतर प्रदर्षन का एक बड़ा कारण भैरों सिंह शेखावत की नरमपंथी छवि भी रही।

आडवाणी के गरमपंथी लाइन पर चलने के इरादों से शेखावत और उनके समर्थक परेशानी में हैं, पर पार्टी में वे अल्पमत में हैं। शेखावत बहुत सतर्कता के साथ कहते है, ‘‘निजी तौर पर मैं हिंदुत्व वाली बात पर ज्यादा जोर नहीं देता हूं पर मुझे यह नही लगता है कि इससे हमें कोई नुकसान हुआ है।" लेकिन उनकी सरकार राम लहर को तेज करने की जगह अंत्योदय और सबको पेयजल जैसी योजनाओं को प्राथमिकता देगी।

और फिर चुनावी नतीजों से उठा गुबार केन्द्रीय नेताओं को ही ठंडा करना पड़ेगा जहां ऊपरी तौर पर एकदम शांति दिखाने की कोशिश की जा रही है। इन चुनावों में पार्टी को मिली पराजय के नाम पर कल्याण सिंह और जोशी अध्यक्ष लालकृष्ण आडवाणी को गद्दी से हटाने की कोशिशें तेज कर सकते हैं।

फिर संगठन के छोटे पदाधिकारी और कार्यकर्ता अभी कुछ भी नहीं समझ पा रहे हैं तथा नेताओं से उनका संपर्क कम होता गया है। अयोध्या कांड की बरसी और बंद पर अपेक्षित समर्थन न मिलने से भी यह संकेत मिलता है कि लोग एक ही मुद्दे पर समर्थक बना रहेगा पर सारे गैर-मुसलमान आंख मूंद कर भाजपा के साथ हो जाएंगे, यह संभव नहीं है। अगर पार्टी यह मानकर सिर्फ इसी रणनीति पर चली तो आगे उसे और बड़े झटके लगेंगे।


India Today (Hindi) 31 December 1993

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