NK's Post

Resentment against hike in bus fare mounting in Bhopal

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NK SINGH Though a Govt. directive has frustrated the earlier efforts of the MPSRTC to increase the city bus fares by as much as 300 per cent, the public resent even the 25 per cent hike. It is "totally unjust, uncalled for and arbitrary", this is the consensus that has emerged from an opinion conducted by "Commoner" among a cross-section of politicians, public men, trade union leaders, and last but not least, the common bus travelling public. However, a section of the people held, that an average passenger would not grudge a slight pinche in his pocket provided the MPSRTC toned up its services. But far from being satisfactory, the MPSRTC-run city bus service in the capital is an endless tale of woe. Hours of long waiting, over-crowding people clinging to window panes frequent breakdowns, age-old fleet of buses, unimaginative routes and the attitude of passengers one can be patient only when he is sure to get into the next bus are some of the ills plaguing the city b...

नरेन्द्र मोदी का राजसूय यज्ञ

Why Modi won


An article written in May 2014


नरेन्द्र कुमार सिंह


बोरी हमें घर से लानी पड़ती थी. वह बोरी गाँव के कच्चे फर्श वाली पाठशाला में बैठने के काम आती थी. हर शनिवार को गोबर से फर्श लीपने के दौरान बच्चे खूब मजे करते, जैसा कि बच्चे ही कर सकते हैं.

दूसरे या तीसरे दर्जे की किताब में अब्राहम लिंकन के बचपन के बारे में एक पाठ था. लकड़ी की एक झोपड़ी में पैदा, दारिद्र्य में पला एक बालक किस तरह एक दिन अमेरिका का राष्ट्रपति बना.

परिवार की मदद के लिए आठ साल की कच्ची उम्र में उन्होंने हाथ में कुल्हाड़ी थाम ली थी. पुस्तक में एक तस्वीर थी - कुल्हाड़ी से लकड़ी चीरते हुए बालक लिंकन की. लिंकन हमें पास पड़ोस के किसी मेहनती बच्चे की याद दिलाते थे.

भारत नया-नया आजाद हुआ था. वे श्रम की गरिमा के दिन थे. स्कूल में बच्चों का झाड़ू लगाना बेगार नहीं समझा जाता था. अभाव में पले लिंकन की जीवनी हमें प्रेरणा से भर देती थी, जैसा कि उस पाठ का मक्सद था.

गरीबी का मजाक

नरेन्द्र मोदी की गरीबी का मजाक सबसे पहले मणिशंकर ऐय्यर ने उड़ाया. 

ऐय्यर दून स्कूल और कैंब्रिज में पढ़े हैं तथा नेतागिरी करने के पहले ऊँचे ओहदे के नौकरशाह थे. उन्होंने कहा कि मोदी प्रधानमंत्री तो कभी नहीं बन पाएंगे, पर उनके लिए दिल्ली में एक जगह ढूंढी जा रही है जहाँ वे चाय की दूकान खोल सकें.

उसके बाद तो मोदी की गरीबी का मखौल उड़ाने वाले बयानों की जिस तरह बाढ़ आई, साफ़ हो गया कि कांग्रेस के नेता अपने पांव पर कुल्हाड़ी मारने में उस्ताद हैं.

अब्राहम लिंकन से मोदी की तुलना करने की धृष्टता मैं नहीं कर रहा हूँ.

पर मवेशी क्लास के मानवों से अपने आप को ऊपर समझने वाले नेता भूल जाते हैं कि कुछ मूल्य शाश्वत होते हैं. उनमें से एक है श्रम का सम्मान. 

सत्ता के मद में अंधे नेता यह भी भूल जाते हैं कि इस मुल्क में २७ करोड़ लोग घोर दारिद्र्य में रहते हैं. एक चाय बेचने वाले लड़के का प्रधानमंत्री की कुर्सी तक पहुंचना उनके लिए गर्व की बात होगी.

"मैं जानता हूँ गरीबी क्या होती है.”

उन्होंने बैठे-बैठाये मोदी के हाथों में कैंपेन का एक सशक्त मुद्दा थमा दिया. 

मोदी अब यह कह कर नहीं रुक जाते कि कांग्रेस को एक चाय बेचने वाले का प्रधानमंत्री बनना गवारा नहीं. वे यह खुलासा भी करते हैं कि उनकी माँ ने आसपास के घरों में बर्तन मांज कर और पानी भर कर उन्हें पाला है. 

वे रेखांकित करते हैं कि गरीबी को समझने के लिए उन्हें राहुल गाँधी की तरह गाँव जाकर झोपड़ियों में रात गुजारने की जरुरत नहीं. “मैंने गरीबी जी है. मैं जानता हूँ गरीबी क्या होती है.”

मणिशंकर ऐय्यर जैसे नेताओं की वजह से कांग्रेस यह चुनाव तो बहुत पहले ही हार गयी थी. घोटालों के घटाटोप से घिरी सरकार की छवि लगातार गिरती रही और उसके शीर्ष नेतृत्व ने एक ऊँगली तक नहीं उठाई.

यूपीए-१ में कम से कम कम्युनिस्टों का अंकुश तो था.

कांग्रेस पर मृत्यु-इक्षा हावी

पिछले पांच साल तो निरंकुशता, कुशासन और भ्रष्टाचार की भेंट चढ़ गए. लगता है कि कांग्रेस पहले ही तय कर चुकी थी कि इस बार उसे वापस नहीं आना है. 

आयाराम-गयाराम का खेल तो हर चुनाव के पहले होता है पर यह शायद कांग्रेस के इतिहास में पहली दफा हो रहा है कि चिदंबरम और मनीष तिवारी जैसे कई बड़े नेता चुनाव लड़ने से कन्नी काट गए हैं.

पार्टी पर मृत्यु-इक्षा हावी दिखती है.

अक्तूबर २०१२ में रोबर्ट वढेरा के खिलाफ जमीन घोटाले के आरोप पहली दफा सामने आये थे. (गुडगाँव में जमीन के धंधे से जुड़े लोग तो इसकी बात एक अरसे से कर रहे थे.)

कल्पना करें कि क्या होता अगर कांग्रेसी सरकारें उस वक्त आरोपों की विधिवत जांच करा लेती, वढेरा के खिलाफ मुक़दमे चलते या उनकी गिरफ्तारी हो जाती. क्या पूरा माहौल नहीं बदल जाता?

क्या कांग्रेस की तीसरी दफा जीत आज पक्की नहीं होती? एक छोटी सी कार्यवाही उनके सारे पुराने पाप धो सकती थी.

मध्य प्रदेश में क्या होता?

एक और कल्पना करें, मध्य प्रदेश के सन्दर्भ में. क्या होता अगर विधान सभा चुनाव में कांग्रेस ने अपने सारे दिग्गजों को मैदान में उतार दिया होता?

शिवराज सिंह चौहान के खिलाफ ज्योतिरादित्य सिंधिया, बाबूलाल गौड़ के खिलाफ दिग्विजय सिंह, कैलाश विजयवर्गीय के मुकाबले कमलनाथ?

हो सकता है कि इनमें से कुछ चुनाव हार जाते. पर चुनाव का पूरा माहौल बदला होता और कांग्रेस की वैसी करारी शिकस्त नहीं होती.

पिछले साल के आखिर में चार प्रदेशों में हुए विधान सभा चुनावों को लोक सभा का सेमी फाइनल समझा जा रहा था.

पर कांग्रेस हाई कमांड ने उसे अपने सूबेदारों के भरोसे छोड़ दिया था. उसने इसकी परवाह नहीं की कि विधान सभा चुनाव में हार देश भर में उसके कार्यकर्तायों के हौसले पस्त करेगी.

कांग्रेस का जाना पक्का

यह मृत्यु-इक्षा नहीं तो और क्या थी?

तो कांग्रेस का जाना पक्का है.

एनडीए का आना भी कमोबेश पक्का ही है. बहुमत से कुछ सीटें कम भी आई तो चुनाव बाद के जोड़ तोड़ एनडीए के काम आयेंगे. 

याद रखें कि इसी मुल्क में फारूक अब्दुल्ला भाजपा सरकार का हिस्सा थे. सत्ता में आने के लिए भाजपा को किसी से परहेज़ नहीं. 

अपने घोर विरोधियों को और यदुरप्पा जैसे चमकदार चेहरों को पार्टी में प्रतिष्ठा देकर भाजपा ने पहले ही अपने चाल और चरित्र का परिचय दे दिया है.

Published in Pradesh Today of 7 May 2014

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