नरेन्द्र कुमार सिंह
मध्यप्रदेश के मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान को घोषणाएं करते रहना अच्छा लगता है। उनके राजनैतिक विरोधियों ने उन्हें " घोषणावीर " की उपाधि बख़्श रखी है। इस उपाधि से उनकी छवि कुछ कुछ डॉन क्विकजोट जैसी बनती है । चमचमाते जिरहबख्तर से लैस एक योद्धा, जो अपनी घोषणाओं का तम्बू तानकर अपनी रियाया को तमाम दुख तकलीफ से बचाने के लिए निकल पड़ा है।
एक नमूना देख लीजिए। अपने कार्यकाल के पहले दस वर्षों में वे 8000 घोषणाएं कर चुके हैं। औसतन दो घोषणाएं रोज. अपनी गद्दी को जरा मजबूत पाकर पिछले तीन वर्षों में इधर उन्होंने अपनी रफ्तार थोड़ी धीमी कर दी है और इस दौरान महज़ 1500 घोषणाएं ही कीं। औसत प्रतिदिन १.3 घोषणा का रहा।
मुख्यमंत्री महोदय जैसे ही किसी सार्वजनिक मंच की सीढ़ियां चढ़ते हैं, वल्लभ भवन में बैठे अधिकारियों के दिल की धड़कनें बढ़ जाती हैं। वे किसी भी अनहोनी के लिए अपनी कमर कसने लगते हैं। उन्हें सरकारी बजट की गम्भीर रूप से ऐसी तैसी करती हुई घोषणाएं अक्सर लाउडस्पीकर पर ही सुनाई जाती हैं।
शिवराज जी को अपनी उद्घोषणाओं की लत लग चुकी है। वे उठते-बैठते, सोते-जागते भी घोषणा करने से बाज नहीं आते। पिछले साल जून में उन्होंने पुलिस फायरिंग में मारे गए किसानों के घर सम्वेदना प्रकट करने के लिए मंदसौर का दौरा किया। नीमच के पास नयाखेड़ा गांव में उन्होंने एक अधबनी सी सड़क पर काम होते हुए देखा। एक क्षण भी गंवाए बिना उन्होंने घोषणा कर डाली कि इस सड़क का नाम इसी गांव के मारे गए किसान चैनसुख पाटीदार के नाम पर किया जाता है।
ढेरों आश्चर्यजनक घोषणाएं अपनी कमरतोड़ रफ्तार से चली आ रही हैं और अपनी कमर कसते अफ़सर उन पर अपनी चौकन्नी निगाह रख रहे हैं. चौहान साहब अपने समारोह में पूर्व निश्चित विषय वस्तु के आजू बाजू हट कर भी कोई न कोई घोषणा कर ही सकते हैं।
रविवार, 11 जून 2017, चौहान साहब के जीवन का एक खास दिन था। उस दिन वे भोपाल एक तम्बू के नीचे मंच पर आए और तड़ातड़ कोई एक दर्जन घोषणाएं कर बैठे :
- किसानों की फसल को न्यूनतम समर्थन मूल्य से कम कीमत पर खरीदना कानूनन अपराध माना जायेगा।
- किसानों की सहमति के बिना उनकी किसी भी जमीन का अधिग्रहण नहीं होगा।
- प्रदेश में जन्म लेने वाले हर नागरिक को जमीन दी जाएगी।
- सोयाबीन की खरीद न्यूनतम समर्थन मूल्य पर होगी।
- दूध की खरीद अमूल के पैटर्न पर होगी।
- प्रतिवर्ष किसानों को उनके भूअभिलेख की प्रति उनके घर पर ही मुफ्त दी जाएगी।
- भूमि के उपयोग पर राज्यस्तरीय सलाहकार मंडल, कृषि उत्पाद के लिए विपणन आयोग और किसानों के लिए ग्राम स्तर पर नॉलेज सेंटर की स्थापना की जाएगी।
- किसान की फसल को न्यूनतम समर्थन मूल्य पर खरीदने के लिए एक विशेष फण्ड बनाया जाएगा.
- शहरी क्षेत्रों में किसान बाजार बनाये जाएंगे ।
अब परेशान हाल अफ़सर इन घोषणाओं को लागू कर पाने के लिए तरीके और रास्ते खोज रहे हैं । खंडहर हो चुके वित्त विभाग के कारकुन हैरान हैं कि इन कामों के लिए अपने मलबे को झाड़ पोंछ कर भी 45000 करोड़ ले आना एक मुश्किल काम है।
लेकिन कोई कुछ भी कहे, बन्दे का दिल बहुत बड़ा है। सामान्यतः किसी मुख्यमंत्री से कोई घोषणा करवा लेना एक बड़ी बात ही मानी जाती है। चौहान से पहले भी प्रदेश में भाजपा के पांच मुख्यमंत्री रहे हैं । वीरेंद्र कुमार सखलेचा और सुंदरलाल पटवा अपनी मुट्ठी मजबूती से बंद रखे रहे। कोई भी उनसे ऐसी वैसी घोषणा करवा पाने में कामयाब नहीं हुआ। सर्व सुलभ कैलाश जोशी और आराम से बतिया लेने वाले बाबूलाल गौर ने भी सार्वजनिक मंच से कभी ऐसा नहीं कहा। उमा भारती को जनभावनाओं से खेलना तो खूब आता है लेकिन उन्होंने अपने पर्स को कभी भी बीच बाजार खोलने की जरूरत महसूस नहीं ही की।
चौहान साहब का मामला थोड़ा अलग है । आप कुछ मांगें उसके पहले ही वे अपनी झोली उलीचने को खड़े हो जाते हैं। कुछ ऐसा ही पिछले दिनों किसान आंदोलन के साथ हुआ। छह किसानों के मारे जाने के फौरन बाद उन्होंने 10 लाख के मुआवजे की बात कही और फिर खुद ही उसे बढ़ा कर 1 करोड़ कर दिया। वे इसीलिए लोकप्रिय हैं। खुद नरेंद्र मोदी उन्हें " मध्य प्रदेश का सर्वाधिक लोकप्रिय मुख्यमंत्री " कहते हैं।
अक्सर वे पहले अपना मुंह खोलते हैं और सोचते बाद में हैं। अब यह एक उदाहरण ही है कि 11 जून २०१७ को उन्होंने घोषणा कर दी कि किसानों की फसल को न्यूनतम समर्थन मूल्य से कम कीमत पर खरीदना अपराध होगा. फिर व्यापारियों की हड़ताल के बाद अपने को सुधारते हुए बोल पड़े कि सामान्य से कम गुणवत्ता वाली फसल के लिए व्यापारी मोल भाव कर सकते हैं. २०१६ भोपाल में कोलार इलाके में सड़क चौड़ीकरण के आदेश दिए; एक साल बाद लोकनिर्माण विभाग को मालूम हुआ कि वहां तो जमीन ही नहीं है!
चौहान की दरयादिली समस्या इसलिए भी बन जाती है कि अधिकांश घोषणाएं सरकार के तौर तरीकों से नहीं होतीं। वेस्टमिनिस्टर की तर्ज़ पर चलते हमारे लोकतंत्र में सामान्यतः कोई भी निर्णय मंत्रिपरिषद की बैठक में या विधानसभा में उचित बहस के बाद या अफसरों की लंबी चौड़ी माथापच्ची के बाद ही लिए जाते हैं। लेकिन चौहान साहब का मामला जरा अलग ही है। उनकी भारी भरकम मंत्रिपरिषद सिर्फ दिखाने के लिए है। वे अपनी घोषणाओं से पूर्व अपने वित्त विभाग या उसके अधिकारियों से कोई बात कर लेने को जरूरी नहीं मानते। उनका स्पष्ट सिद्धांत है कि प्रदेश में जो कुछ भी किया जाना है उसके बारे में मुख्यमंत्री जी ही बता सकते हैं।
ऐसे में किसी मुख्यमंत्री के वादों का पूरा न हो पाना कोई अचरज की बात नहीं। २०१६ में सिंहस्थ के दौरान जब तूफान आया तो मुख्य मंत्री दौड़ कर उज्जैन पहुंचे और घायलों को आर्थिक सहायता का वचन दे आये थे। उनमें से बहुतों को यह सहायता साल भर बाद भी नहीं मिल पाई थी।
सरकारी दस्तावेजों के मुताबिक इन मुख्यमंत्री महोदय के कार्यकाल के पहले दस वर्षों की 8000 घोषणाओं में से लगभग 2000 को पूरा नहीं किया जा सका । पिछले तीन साल की 1500 घोषणाओं में से केवल 10 प्रतिशत ही पूरी हो सकी हैं।
इस साल चुनाव में उतरने से पहले मुख्यमंत्री जी के सामने " मैनी प्रॉमिसेस टू कीप एंड माइल्स टू गो " की चुनौती खड़ी हो गयी है ।
Powers That Be, my column in DB Post of 18 June 2017
अनुवाद :राजेन्द्र शर्मा
Translated from English by Rajendra Sharma
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