NK's Post

Ordinance to restore Bhopal gas victims' property

Image
NK SINGH Bhopal: The Madhya Pradesh Government on Thursday promulgated an ordinance for the restoration of moveable property sold by some people while fleeing Bhopal in panic following the gas leakage. The ordinance covers any transaction made by a person residing within the limits of the municipal corporation of Bhopal and specifies the period of the transaction as December 3 to December 24, 1984,  Any person who sold the moveable property within the specified period for a consideration which he feels was not commensurate with the prevailing market price may apply to the competent authority to be appointed by the state Government for declaring the transaction of sale to be void.  The applicant will furnish in his application the name and address of the purchaser, details of the moveable property sold, consideration received, the date and place of sale and any other particular which may be required.  The competent authority, on receipt of such an application, will conduct...

क्या शिवराज की लोकप्रियता में कमी आ रही है?

नरेन्द्र कुमार सिंह


मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान की ख्याति एक ऐसे नेता के रूप में है जिन्हें वोट बटोरने की कला में महारथ हासिल है. उनकी नजर चौबीसों घंटे चुनावी शतरंज की बिसात पर टिकी रहती है. शिवराज सरकार के हर छोटे बड़े काम का एक ही मक्सद होता है ---- ज्यादा से ज्यादा वोट हासिल करना. कोई भी चुनाव चौहान के लिए छोटा नहीं है. नगर पंचायत के चुनावों तक को वे एक चुनौती के रूप में लेते हैं. प्रतिद्वंदी को कमजोर समझने की गलती आज तक उन्होंने नहीं की है.

वे शायद मध्य प्रदेश के पहले मुख्यमंत्री हैं जिन्होंने म्युनिसिपलिटी के चुनाव में भी अपने आप को झोंक दिया है. बड़े नेता ऐसे छोटे इलेक्शन से कतराते हैं क्योंकि अक्सर उनमें फैसला १०० से भी कम वोटों से हो जाता है. उनके पहले के मुख्यमंत्री स्थानीय निकायों के इलेक्शन से इसलिए भी बचते थे क्योंकि ऐसे छोटे मोटे चुनावों में प्रचार करना उनको अपनी तौहीन लगती थी. चौहान तो अक्सर ऐसी जगहों पर वोट मांगते दिख जाते हैं जहाँ उनके मंत्री भी कभी दिखाई नहीं पड़ते थे. इसीका नतीजा है कि वे भाजपा को लगातार दो बार विधान सभा चुनाव में जीत हासिल करवा चुके हैं.

हर इलेक्शन में करो या मरो की भावना के साथ उतरने वाले शिवराज सिंह के लिए अगस्त में हुए म्युनिसिपल चुनाव जरूर परेशान करने वाले रहे होंगे. १४ सालों से प्रदेश में सत्ता पर काबिज भाजपा के लिए इन चुनाव के नतीजों ने खतरे की घंटी बजा दी है. नतीजों से साफ़ इशारा मिल रहा है कि सरकार के खिलाफ असंतोष पनप रहा है.

यों तो ऊपर से देखने में चिंता की कोई बात नहीं. कांग्रेस के मुकाबले भाजपा काफी आगे है. ४३ में से २५ सीट जीत कर उसने लगभग ६० प्रतिशत निकायों पर कब्ज़ा किया. कांग्रेस को केवल १५ सीटें मिली. पर अगर बारीकी से देखा जाये तो सत्तारूढ़ दल के लिए कई तथ्य परेशान करने वाले हो सकते हैं.

·        पहले के मुकाबले बीजेपी की सीटें कम हो गयी हैं. पहले वह २८ म्युनिसिपेलिटी पर काबिज थी, इस बार उसे तीन सीटों का नुकसान हुआ है.

·        लस्त पस्त कांग्रेस तेजी से छलांग लगा रही है. उसके कब्जे वाली म्युनिसिपेलिटी की तादाद ९ से बढ़ कर १५ हो गयी है. बड़े नेताओं के झगड़ों से तबाह हो चुकी पार्टी के लिए ऐसे नतीजे उत्साह वर्धक हैं.

·        सरकार के खिलाफ असंतोष के साफ़ संकेत हैं. अगस्त के इलेक्शन के पहले बीजेपी जिन २८ निकायों पर काबिज थी, उनमें से लगभग एक तिहाई में वह सत्ता से बाहर हो गयी है.

·        चौहान की लोकप्रियता में गिरावट आई है. चौहान ने जहाँ जहाँ प्रचार किया, उनमें से लगभग आधी सीटें बीजेपी हार गयी. लोकप्रियता में यह गिरावट दो महीने पहले शुरू किसान आन्दोलन के समय से ही नजर आ रही थी.

प्रदेश के विभिन्न नेताओं की लोकप्रियता का अंदाजा लगाने के लिए बीजेपी नेताओं ने एक ओपिनियन पोल दो महीने पहले करवाया था. इस गोपनीय ओपिनियन पोल में चौहान के अलावा कांग्रेस के सारे बड़े नेताओं की लोकप्रियता का भी आंकलन किया गया था ---- ज्योतिरादित्य सिंधिया, कमलनाथ, दिग्विजय सिंह और अरुण यादव. कांग्रेस के नेताओं में सबसे ऊपर सिंधिया थे, और सबसे नीचे दिग्विजय सिंह. पर सिंधिया और कमलनाथ के बीच करीब ३० प्रतिशत वोटों का बहुत बड़ा फासला था.

पर मुख्यमंत्री के राजनीतिक सलाहकारों के लिए चिंता का विषय यह था कि चौहान की अपनी लोकप्रियता में ६ महीने पहले हुए ओपिनियन पोल के मुकाबले करीब पांच प्रतिशत की गिरावट आई थी. दूसरी तरफ सिंधिया का ग्राफ बढ़ा था. अपनी लोकप्रियता में गिरावट और सिंधिया के बढ़ते ग्राफ को शिवराज भी महसूस कर पा रहे हैं. यही वजह है कि आये दिनों बैठे ठाले वे सिंधिया पर निशाना साधते रहते हैं, खासकर १८५७ के विद्रोह के समय उनके खानदान की देश से गद्दारी की याद दिलाकर.

भाजपा के चुनावी रणनीतिकार इस बात को नजरंदाज नहीं कर सकते कि अगस्त के इलेक्शन में चौहान ने हमेशा की तरह अपनी पूरी ताकत लगा दी थी. खुद तो वे रोड शो करते हुए गली मोहल्लों की खाक तो छान ही रहे थे, अपने एक दर्ज़न मिनिस्टरों को भी उन्होंने चुनाव में झोंक दिया था. सांसदों और विधायकों को साफ कह दिया गया था कि अगर उनके क्षेत्र में पार्टी चुनाव हारती है तो अगले चुनाव में उनका खुद का टिकट खतरे में पद जायेगा.

नतीजों को थोडा और भी बारीकी से देखें तो बीजेपी के चिंता के लिए पर्याप्त कारण हैं. दो म्युनिसिपल चुनाव कांग्रेस के बागी उम्मीदवारों ने जीते ---- छिंदवाडा जिले में pandhurna और बेतुल जिले में सारणी. कांग्रेस का एक बागी शहडोल में दूसरे स्थान पर आया. मतलब कांग्रेस ने अगर उसे ऑफिसियल उम्मीदवार बनाया होता तो बीजेपी की हार निश्चित थी.

इसके अलावा, कम से कम चार सीटें ऐसी थी जहाँ कांग्रेस बहुत कम वोटों से हारी. बेतुल जिले में आठनेर सीट वह ४६ वोटों से हारी और खंडवा जिले में छनेरा ४९ वोटों से. बुरहानपुर में नेपानगर सीट और खरगोन में भीखनगाँव सीट उसने २५० से कम अंतर से खोया.

फ़र्ज़ कीजिये कि कांग्रेस के नेता अपने आपसी मतभेद भुलाकर थोडा जोर लगाते और इन सात आसानी से जीतने लायक सीटों को भी जीत लेते. ऐसी सूरत में चुनावी परिदृश्य पूरी तरह बदला होता. कांग्रेस के पास २२ सीटें होती और बीजेपी के पास १८.

वास्तव में कांग्रेसी नेताओं ने तो पूरा दम लगाया ही नहीं. सिंधिया मुख्यमंत्री बनने का सपना देखते हैं. पर अपने ही क्षेत्र में नगर निकायों में उन्होंने मुंह की खायी. ग्वालियर जिले के डबरा में और मोरैना के कैलारस में आज तक कांग्रेस नहीं हारी थी. पर सुरक्षित समझी जाने वाली यह सीटें भी कांग्रेस इस दफा खो बैठी. डबरा ग्वालियर के पिछवाड़े में है, पर सिंधिया एक दफा भी चुनाव प्रचार के लिए वहां नहीं पहुंचे. अगर वे चुनाव में सक्रीय रहते तो शायद नतीजे काफी अलग हो सकते थे.

म्युनिसिपल इलेक्शन के ऐसे असन्तोषजनक नतीजों के वावजूद भाजपा अध्यक्ष अमित शाह ने हाल में ऐलान किया कि पार्टी २०१८ का विधान सभा चुनाव चौहान के ही नेतृत्व में लड़ेगी. शाह के इस ऐलान से उन अफवाहों पर रोक लग गयी कि शिवराज सिंह के पंख कतरने के लिए उन्हें केन्द्रीय कैबिनेट में शामिल किया जा रहा है. म्युनिसिपल इलेक्शन के नतीजों के महज दो  दिन बाद ही यह घोषणा हुई. और जैसा कि सबको मालूम है शाह की घोषणा का वजन साहेब की घोषणा से कोई कम नहीं.

जाहिर है भाजपा हायकमान इस वास्तविकता को महसूस करता है कि मौजदा हालातों में उसके पास मध्य प्रदेश में चौहान से बेहतर नेता मौजूद नहीं. खासकर ऐसा नेता जो चुनाव में गोटियाँ बिछाने में माहिर हो. याद करें शिवराज सिंह मध्य प्रदेश में उमा भारती जैसी कद्दावर नेता को भी चारों खाने चित्त कर चुके हैं. ज्यादा अरसा नहीं हुआ जब भगवाधारी भारती ने भाजपा के खिलाफ बगावत कर नयी पार्टी बनायीं थी और शिवराज ने उन्हें चुनावी मैदान में धूल चटाया था.  

वैसे म्युनिसिपल चुनाव ने चौहान को एक सबक तो सिखा दिया होगा ---- कि जुमलेबाजी अब नहीं चलने वाली है और उन्हें मैदान में काम करके दिखाना होगा. कलेक्टरों को उल्टा टांगने का जुमला दाग कर वे सनसनी तो पैदा कर सकते हैं, पर इससे उन्हें वोट नहीं मिलने वाले हैं. नर्मदा यात्रा जैसे भव्य और चकाचौंध करने वाली राजनीतिक ड्रामेबाजी अलग चीज़ है. एक दिन में छह करोड़ पौधे रोपकर सस्ती पब्लिसिटी हासिल करना भी  आसान है. घर में झाड़ू पोंछा, चौका बर्तन करने वाली बाईओं को मुख्यमंत्री आवास में पंचायत बुलाकर मजमेबाजी करना सरकार के लिए बाएं हाथ का खेल हो सकता है. इन ड्रामों से उन्हें प्रचार तो मिल सकता है, पर वोट नहीं.

My article in Tehelka (Hindi) of 15th Sept 2017

Email: nksexpress@gmail.com
Tweets @nksexpress

Comments