NK's Post

Resentment against hike in bus fare mounting in Bhopal

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NK SINGH Though a Govt. directive has frustrated the earlier efforts of the MPSRTC to increase the city bus fares by as much as 300 per cent, the public resent even the 25 per cent hike. It is "totally unjust, uncalled for and arbitrary", this is the consensus that has emerged from an opinion conducted by "Commoner" among a cross-section of politicians, public men, trade union leaders, and last but not least, the common bus travelling public. However, a section of the people held, that an average passenger would not grudge a slight pinche in his pocket provided the MPSRTC toned up its services. But far from being satisfactory, the MPSRTC-run city bus service in the capital is an endless tale of woe. Hours of long waiting, over-crowding people clinging to window panes frequent breakdowns, age-old fleet of buses, unimaginative routes and the attitude of passengers one can be patient only when he is sure to get into the next bus are some of the ills plaguing the city b...

झोलावालों को गुस्सा क्यों आता है?

नरेन्द्र कुमार सिंह 



जिस पाठशाला में मैंने ककहरा सीखा वहाँ खपरैल की छप्पर थी और माटी का फर्श था। वह प्राइमरी स्कूल गांव की इकलौती मुख्य सड़क पर ही था। रेलवे स्टेशन को जाती धूल भरी यह कच्ची सड़क, जिसके आसपास सरसों के पीले खेत,  अमराई, और सौंफ के महमह करते पौधे हुआ करते, हमारे गांव की जीवन रेखा ही थी। पास ही सांप की तरह बल खाती एक झील थी जहाँ कमल के फूल उगते थे और हिमालय पार से आने वाले अनगिनत अजाने पक्षी किलोल करते।

लेकिन इतना समृद्ध और खूबसूरत पड़ोस भी हमारे स्कूल की गरीबी को ढांक नही पाता था। स्कूल की कुल जमा सम्पत्ति एक जोड़ा टुटही मेज कुर्सी ही थी। हम छात्रों से उम्मीद की जाती थी कि घर से बोरा या चटाई ले आएं ताकि उस पर आल्थीपाल्थी मार कर पढ़ाई की जा सके। ज़्यादातर बच्चे जूट की बोरियां लाते जो उनके स्कूल बैग का काम भी कर देती थीं।

सुबह की प्रार्थना के वक़्त छात्रों को ही पूरे स्कूल में झाड़ू लगानी पड़ती थी। शनिवार को ख़ास सफ़ाई होती थी। बच्चा गाय का गोबर बटोर कर लाते थे जिससे हम स्कूल के फर्श पर लिपाई किया करते थे। अगले एक सप्ताह के लिए धूल-मिट्टी से छुट्टी। वही दिन स्कूल  के बगीचे में हमारे लिए निंदाई, गुड़ाई और और फूल की क्यारिओं की सिंचाई के लिये भी तय था।

हमारे जैसे कई बच्चों ने तब अपने घरों में झाड़ू को कभी हाथ भी न लगाया था। लेकिन कच्चे फ़र्श और खपरैल के छप्पर वाले उस प्राइमरी स्कूल ने मुझे स्वच्छता का पहला पाठ पढ़ाया। और यह पाठ आधा प्रतिशत स्वच्छ भारत सेस वसूले जाने से बहुत पहले मुफ्त में ही पढ़ा दिया गया था। उसी स्कूल में मैंने सीखा कि हाथ से काम करना हिक़ारत का विषय नहीं।

और इसीलिए, इस एक खबर को सुनते ही, मैं सकते में आ गया।

मैंने सुना कि एक सरकारी स्कूल की टीचर पर महज इसलिए कहर बरपा है कि उस स्कूल के किसी कार्यक्रम के दौरान वह अपना लिखित भाषण पढ़ रही थी और आठवीं कक्षा का एक छात्र उसके लिए 15 मिनिट तक माइक थामे खड़ा था।

अब सरकारी अनुदान पर पलने वाले "चाइल्ड लाइन" नाम के एक एनजीओ ने व्यथित होकर उस बच्चे के इस ‘अपमान’ का मामला उठाया। उन्होंने संयुक्त राष्ट्र और भारत के राष्ट्रपति को छोड़कर हर जगह इसकी शिकायत कर डाली। घटना के विडीओ से लैस इस एनजीओ ने बाल अधिकार संरक्षण आयोग, बाल कल्याण बोर्ड, ज़िला शिक्षा अधिकारी सबको गुहार लगायी। अपनी मुहिम को ज्यादा असरदार बनाने के लिए उसे मीडिया के साथ शेयर भी किया  कुछ अख़बारों ने दिल दहलाने वाले इस अपराध को कुछ इस अन्दाज मेंछापा मानो वे किसी सनसनीख़ेज़ ख़ून केस की रिपोर्टिंग कर रहे हों।

इस मामले पर सत्ता केंद्रों की प्रतिक्रिया भी अजब गजब दिखाई दे रही है। ज़िला शिक्षा अधिकारी महोदय ने आनन फानन में उस स्कूल के प्राचार्य और सम्बंधित टीचर से स्पष्टीकरण मांग लिया। मंत्री उमाशंकर गुप्ता, जो उस दिन वहां मंच पर ही मौजूद थे, मामले पर इस तरह दांये बांये झांक रहे हैं मानो उन्हें किसी क़त्ल के मुकदमे में गवाही देनी पड़ रही हो। उन्होंने फरमाया कि घटना उनकी मौजूदगी में नहीं हुई। भोपाल के महापौर आलोक शर्मा ने बाकायदा हुंकार भरते हुए कहा है कि यह घटना उनके "बर्दाश्त से बाहर" है और "गुनहगार को इसकी सज़ा मिल कर रहेगी।

गुनहगार?

आखिर यह गुनाह क्या है?

एक छात्र को उसके ही स्कूल के अपने उत्सव में उसकी अपनी टीचर की मदद के लिए 15 मिनिट तक माइक पकड़ कर खड़े रहने को कह देना, गुनाह है? जिसने भी उसे मदद करने को कहा, वह गुनहगार है ? सभी छात्रों को ऐसे मौकों पर अपने टीचर की मदद करना अच्छा लगता है जनाब! अपने किसी भी टीचर का ऐसा हर आदेश उनमें कुछ खास बाब जाने का अहसास जगा देता है।

ऐसी किसी भी घटना पर स्वघोषित महान समाजसेवकों और पत्रकारों का हंगामा तो कुछ कुछ समझ में आता है लेकिन यह समझ में नहीं आता कि सत्ता केंद्र में बैठे अफसर और मंत्रीगण इन हंगामाखोरों के दबाव में क्यों और कैसे आ जाते हैं ।

अक्सर ही कुछ सनसनीखेज़ रिपोर्ट्स हमें देखने को मिलती हैं जिनमें ऐसे तमाम स्वघोषित समाजसेवी दावा करते हैं कि अलांफलां स्कूल में शिक्षकों ने छात्रों से झाड़ू लगवाई। विंध्य क्षेत्र में तो इन लोगों ने उस वक़्त आसमान ही सर पर उठा लिया था जब बरसात का पानी एक स्कूल में घुस गया था और उसके शिक्षकों ने स्कूल के रिकार्ड्स और अन्य काग़ज़ पत्र सुरक्षित जगह ले जाने में अपने विद्यार्थियों की मदद ली थी।

आज भी कुछ ऐसे ही उत्साहीलाल अपने जासूसी कैमरे लिए समाज में घूम रहे हैं। छात्रों के हाथ में कोई झाड़ू, खरपी या कुदाल इन छुट्टा सांडों को लाल कपड़ा दिखाने जैसा है। इन लोगों का इरादा महान हो सकता है, लेकिन अपनी हरकतों से ये सभी हमारे बच्चों के दिमाग में मानवीय श्रम  के प्रति घृणा के बीज ही बो रहे हैं।

ऐसी हालत में में तो इस ख़याल भर से ही कांप उठता हूँ क्या होगा अगर स्कूल में छात्रों से उस शौचालय को साफ करने कहा जाए जिसका वे इस्तेमाल करते हैं। बच्चों के अधिकारों के लिए लड़ने वाले ये लोग तो उसे फ़ौरन  शारीरिक प्रताड़ना करार दे देंगे। उनके ख़याल में टॉयलेट धोने का काम तो किसी सफाई कर्मी का है. और जैसा कि हम सबको मालूम है, "सफाई कर्मी" शब्द के ठीक नीचे ही बहुत महीन अक्षरों में किसी जाति विशेष के लिए आरक्षित काम है!

मैं चाहता हूं कि हम हरियाणा कैडर के आईएएस अफसर प्रवीणकुमार से कुछ सीखें। वर्ष 2011 में प्रवीणकुमार फरीदाबाद के डिप्टी कमिश्नर हुआ करते थे। यह स्वच्छ भारत अभियान शुरू होने से बहुत पहले की बात है। एक स्कूल के दौरे के समय बच्चों ने उनसे शिकायत की उनके स्कूल में एक ही सफाई कर्मी है और जिस दिन वह छुट्टी पर होता है, शौचालय के पास खड़ा होना भी मुश्किल हो जाता है। स्कूल में 3000 बच्चे पढ़ते थे।

कलेक्टर साहब ने उनकी बात सुनी और चले गए। लेकिन दो घण्टे बाद ही वे लौटे और इस बार उनके हाथों में एक झाड़ू, एक बाल्टी, फिनाइल की बोतल और डिटर्जेंट पाउडर का पैकेट भी था । वे शौचालय में घुसे और 20 मिनिट बाद जब बाहर आए तो चकाचक साफ़ टॉयलेट छात्रों के इस्तेमाल के लिए तैयार था।


स्कूल से बाहर आते वक़्त वे अपने पीछे न केवल एक साफ़-सुथरा टायलेट बल्कि वहां मौजूद छात्रों के लिए एक सबक़ भी छोड़कर गए थे। उम्मीद है हरियाणा के उस स्कूल के तमाम छात्रों को वह पाठ आज भी याद होगा।

Translated from English by Rajendra Sharrma

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